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322 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
(9) वैयावृत्य-वैयावृत्य का अभिप्राय समर्पण भाव से सेवावृत्ति है। रोगी, वृद्ध, आशक्त और जरूरतमंद की अग्लान भाव से सेवा करना वैयावृत्य
है।
सेवा (servitude) को बिना किसी ननुनच के नैतिकता कहा जा सकता है और सेवा के साथ-साथ समर्पण की भावना जितनी बढ़ती जाती है व्यक्ति का नैतिक चरित्र भी उतना ही उच्चकोटि का होता जाता है। क्योंकि श्रमण में समर्पण की भावना सर्वोच्च कोटि की होती है, उसकी नैतिकता भी चरम तक पहुंची हुई होती है।
(10) स्वाध्याय-स्वाध्याय का धार्मिक, वैयक्तिक, सामाजिक, वैज्ञानिक सभी दृष्टियों से अत्यधिक महत्व है। व्यावहारिक क्षेत्र में इसे अध्ययन कहा जाता है और उस अध्ययन का लक्ष्य होता है, सांसारिक जीवन को सुखमय बनाना, किन्तु धार्मिक क्षेत्र में इसे स्वाध्याय कहा गया है। स्वाध्याय का अर्थ है, अपनी आत्मा का-स्वयं का अध्ययन करना।
आवश्यक सूत्र में कहा गया है कि श्रेष्ठ अध्ययन का नाम स्वाध्याय है। आचार्य अभयदेव ने भलीभाँति मर्यादा के साथ अध्ययन को स्वाध्याय कहा है। और वैदिक विद्वानों ने 'स्वयमध्ययनम्' तथा 'स्वस्य-आत्मनोऽययनम्' स्वाध्याय के यह दो लक्षण दिये हैं। पश्चिमी विद्वानों ने तो सद्ग्रन्थों के अध्ययन को जीवन का सर्वोतम साथी कहा है। . वास्तव में स्वाध्याय नन्दनवन है। सद्ग्रन्थों के अध्ययन के समय मानव अपनी सारी आधि-व्याधि और उपाधियों को विस्मृत हो जाता है। उसे जीवन
और चरित्र निर्माणकारी शिक्षाएँ मिलती हैं। मन की हताशा, निराशा समाप्त होकर नवीन आशा, उल्लास और स्फूर्ति का संचार ही जाता है।
नीतिशास्त्र उभयमुखी है। वह व्यक्ति के बाहरी-लौकिक जीवन को भी सुखी करने का प्रयास करता है और साथ ही उसके आन्तरिक जीवन को भी आनन्द से ओत-प्रोत कर देना चाहता है।
इस दृष्टि से स्वाध्याय के वे सभी रूप नीतिशास्त्र को ग्राह्य हैं, जो जीवन का निर्माण करते हैं; इसे निखारते हैं और चमकाते-दमकाते हैं।
1. आवश्यक सूत्र, 4 अ. 2. स्थानांग, 2/230 3. देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. 585