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नैतिक चरम / 321
जब भगवान महावीर से उन्हें यह मालूम हआ कि आनन्द का कथन सत्य तो है तो वे अपने उच्च पद के व्यामोह में न पड़े और तुरन्त जाकर आनन्द से निस्संकोच सरल हृदय से क्षमा मांगी। यह गौतम गणधर की चरम कोटि की नैतिकता थी।
(8) विनय-विनय तप भी है, लोकोचार' अथवा शिष्टाचार भी है, सदाचार भी है और धर्म का मूल भी है, और है यह मोक्ष फलप्रदाता। इससे अंहकार का विसर्जन होता है और हृदय में कोमल भावनाओं से संचार होता है, अंतरंग में मधुर वृत्तियां सजग हो उठती हैं।
विनय उच्च कोटि की नैतिकता है, आध्यात्मिक दृष्टि से भी और सांसारिक दृष्टि से भी। विनयपूर्ण व्यवहार सदैव और सर्वत्र प्रशंसित होता है, विनयी व्यक्ति सभी जगह सम्मानित और समाहत होता है।
नीतिशास्त्र में अभिमान की गणना अनैतिक प्रत्ययों में की गई है तो अभिमान का निरसन करने वाले विनय को स्वयंमेव ही नैतिक प्रत्ययों में स्थान प्राप्त हो जाता है। विनयी व्यक्ति अपने इस गुण के कारण नीतिवान बन जाता है।
शास्त्रों में विनय के सात भेद बताये गये हैं, यद्यपि वे सभी नीति के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं, किन्तु मन-वचन काय विनय और चौथा लोकोपचार विनय का इस सन्दर्भ में विशेष महत्व है। ___ केवल कायविनय तो पाखण्ड मात्र है। काय से और वचन से विनय तो धूर्त और धोखेबाज भी करते हैं, लोकोक्ति है-दगाबाज दूना नमे; किन्तु वही है जिसमें मन भी संयुक्त हो। इसीलिए अहं विसर्जन को विनय कहा गया है। ऐसे ही विनय का नीति में और धर्म में भी महत्व है।
श्रमण अपने गुरुजनों तथा अन्य साथी संतों के साथ जो हार्दिक विनयपूर्ण व्यवहार करता है, मन में विनय के भाव रखता है, ऐसे विनय युक्त वचन बोलता है और इसी प्रकार की काय चेष्टाएं करता है, वह सब कुछ सबकी उच्च कोटि की नैतिकता ही है।
1. (क) देवेन्द्र मुनि शास्त्री : भगवान महावीर एक अनुशीलन
(ख) मुनिश्री कन्हैयालालजी कमल : धर्मकथानुयोग 2. (क) तत्वार्थ सूत्र, 9, 20
(ख) भगवती श., 25, उ. 7, सू. 17 3. (क) तत्वार्थ सूत्र, 9, 13
(ख) औपपातिक सूत्र, तप वर्णन 4. दशवैकालिक, 9, 2, 2-धम्मस्स विणओ मूलं। 5. (क) स्थानांग, 7, 585
(ख) भगवती श., 25 उ.7