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320 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
अनशन को चिकित्साशास्त्र में शरीर की नीरोगता के लिए उत्तम औषधि बताया गया है-"लंघनं परमौषधम्।" स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है, साथ ही इन्द्रियों का वेग कम होता है। उनका दमन होता है, जो नैतिक उत्कर्ष के लिए आवश्यक है।
ऊनोदरी में तो इच्छाओं पर ब्रेक लगाना ही पड़ता है। सामने स्वादिष्ट व्यंजनों से थाल भरा रखा है, आग्रह भी हो रहा है, रसना चाहती है कि कुछ मिष्ठान्न और चटपटे पदार्थों का स्वाद लिया जाय, पेट में भूख भी है, वह भी
और भोजन मांग रहा है, हाथ मिठाई की ओर बढ़ना चाहते हैं, नासिका भी भोजन से उठती मधुर सुगन्ध से लालायित हो रही हैं, आंखे भी मिठाई और , नमकीन के सुन्दर रूप को टकटकी लगाये देखना चाहती हैं, ऐसे में अपने आपको रोकना, मन को वश में करना बड़ा कठिन है। इसी अपेक्षा से ऊनोदरी अनशन से भी कठिन है क्योंकि इसमें पांचों इन्द्रियों और मन को वश में करना होता है, इच्छाओं पर नियन्त्रण करना होता है।
'इच्छा' (desire) नीतिशासत्र का प्रमुख प्रत्यय है, उन पर नियन्त्रण करना, कम करना, नैतिक उत्थान के लिए आवश्यक है।
यही बात वृत्तिसंक्षेप और प्रतिसंलीनता तप के लिए है।
इसी प्रकार कायक्लेश तप से शरीर को अनुशासित किया जाता है। अनुशासन का महत्व नैतिक दृष्टि से कितना है, यह सर्वजन विदित है।
आभ्यन्तर तप
(7) प्रायश्चित तप-कोई भूल हो जाने पर हृदय से पश्चात्ताप प्रगट करना और योग्य दण्ड स्वीकार करना। श्रमण-जीवन में अपने दोषों की आलोचना गुरु के समक्ष की जाती हैं और उनसे योग्य दण्ड-प्रायश्चित लिया जाता है।
लेकिन नैतिकता के लिए गुरु के समक्ष आलोचना करना और उनसे दण्ड लेना अनिवार्य नहीं है। व्यक्ति (श्रमण-श्रावक) स्वयं ही अपने परिणामों (मानसिक भावों), कहे हुए शब्दों और कायिक चेष्टाओं पर गहरी निरीक्षण दृष्टि रखता है, स्वयं ही तुरन्त अनुताप प्रगट करता है और जिस व्यक्ति के प्रति कटु शब्द निकल गये हों, अथवा अन्य कोई अपराध हुआ हो, उससे निःसंकोच क्षमा मांग लेता है।
आनन्द श्रावक ने जब अपने अवधिज्ञान के विषय में गौतम गणधर को बताया तो उन्हें विश्वास न हुआ, वे समझे आनन्द झूठ बोल रहा है। लेकिन