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नैतिक चरम / 319
आभ्यन्तर तप' के भेद-7 प्रायश्चित 8 विनय 9 वैयावृत्य 10 स्वाध्याय 11 ध्यान 12 व्युत्सर्ग।
(1) अनशन - अनशन का अभिप्राय है- आहार न करना । आहार के चार प्रकार हैं- 1. अशन (अन्न) 2. पान ( जल, पेय पदार्थ आदि) 3. खादिम (मेवा, मिष्ठान्न आदि) 4. स्वादिम ( मुख को सुवासित करने वाले इलायची आदि पदार्थ) । इन चारों प्रकार के भोज्य पदार्थ अथवा 'पान' के अतिरिक्त तीन प्रकार के भोज्य पदार्थो का त्याग अनशन है ।
(2) ऊनोदरी - इसके अन्य नाम अवमौदरिका और अवमौदर्य है । ऊनोदरी का अभिप्राय है- भूख से कम खाना । इसमें इच्छा नियमन किया जाता है। (3) वृत्तिपरिसंख्यान - इसको अंग ग्रंथों में भिक्षाचर्या कहा गया है। इसका एक नाम वृत्तिसंक्षेप भी है । इसमें अपनी वृत्तियों को भोजन, वस्त्र आदि आवश्यक वस्तुओं को उत्तरोत्तर न्यून किया जाता है ।
वृत्तिसंक्षेप और वृत्तिपरिसंख्यान शब्दों का नीतिशास्त्र में अधिक महत्व है क्योंकि अपनी वृत्तियों को व्यक्ति जितना नियमित करता जाता है, उतने उसके दृढ़ कदम नैतिक उत्कर्ष पर चरम की ओर बढ़ते जाते हैं।
( 4 ) रस - परित्याग - इस तप में रसों का त्याग करके अस्वाद वृत्ति अपनाई जाती हैं, स्वादलोलुपता से विरक्ति ही इस तप का ध्येय है ।
(5) कायक्लेश - इस तप में विभिन्न आसनों द्वारा काया यानी शरीर को अनुशासित किया जाता है, उसे कष्टसहिष्णु बनाया जाता है, शरीर की सुख-सुविधा लोलुपता और सुखशीलता की प्रवृत्ति को समाप्त किया जाता है । सर्दी, गर्मी के प्राकृतिक कष्ट तो साधक सहता ही है, विभिन्न प्रकार के आसन आदि के कष्ट स्वेच्छा से सहता है ।
(6) प्रतिसंलीनता - इस तप में व्यक्ति इन्द्रियों को उनके विषयों से विमुख करता है, कषायों पर विजय प्राप्त करता है और मन-वचन-काय की कुप्रवृत्तियों को रोकता है।
इन सभी बाह्य तपों से शरीर और आत्मा की शुद्धि तो होती ही है, साथ ही यह तप नैतिक उत्कर्ष व चरम की भूमिका को भी दृढ़ करते हैं ।
1. (क) अभिन्तरए तवे छव्विहे पण्णत्ते तं जहा
पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं सज्झाओ झाणं विउस्सगो ।
- भगवती श, 25, उ. 7, सूत्र 217 - तत्वार्थ सूत्र, 9, 20
(ख) प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युन्तरम ।