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318 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
जो व्यक्ति अपनी कामनाओं, वासनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर सकता, उसे नैतिक कौन कहेगा?
अतः स्पष्ट है कि धर्म जो आत्मशोधन की क्रिया करता है, वही शोधन क्रिया उच्चकोटि की नैतिकता का सर्वोच्च लक्ष्य है। इस प्रकार (और नीति इस बिन्दु पर एक हो जाते हैं।
तप
तप श्रमण का एक आवश्यक कर्तव्य है। वह तपश्चर्या का मूर्तमन्त रूप होता है। उसका समस्त जीवन ही तप रूप बन जाता है। उसका मूल उद्देश्य होता है-शोधन, शोधन वृत्तियों का, प्रवृत्तियों का, आत्मा पर लगे कर्म-पल का। इसीलिए कहा गया है-आत्मशोधिनी क्रिया तपः। जितनी भी क्रियाएं आत्म-शुद्धि में सहायक होती हैं, उन सबकी गणना तप में की गई है। __तप जितना आन्तरिक जीवन-शोधन के लिए आवश्यक है, उतना ही वह व्यक्ति के व्यवहार को, बाह्य जीवन को परिष्कृत करता है, तप से तपा हुआ व्यक्ति कंचन के समान निखरता है, उसका चारित्रिक और नैतिक उत्कर्ष होता
है।
जैन आगमों में तप के बारह भेद बताये गये हैं जिनके बाह्य और आन्तरिक तप की अपेक्षा से छह-छह भेद किये गये हैं।
तप के बारह भेद
__ बाह्य तप' के भेद हैं-1 अनशन 2 ऊनोदरिका, 3 भिक्षाचर्या 4 रसपरित्याग 5 कायक्लेश और 6 प्रतिसंलीनता। 1. (क) बाहिरिए तवे छविहे पण्णत्ते तं जहा
अणसण मूणोयरिया भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ।
कायकिलेसी पडिसंलीणया वज्झो तवो होई।। -भगवती श., 25, 7 सूत्र 187 (ख) अनशनावमौदर्यवृत्तिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेषाः। बाह्यं तपः।
-तत्वार्थ सूत्र, 9, 19 विशेष-तत्वार्थ सूत्र में भिक्षाचर्या के स्थान पर वृत्तिपरिसंख्यान दिया गया है। यह शब्द नीति की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है; क्योंकि भिक्षाचर्या केवल श्रमण तक ही सीमित है, जबकि वृत्तिपरिसंख्यान तप का पालन श्रमण और श्रावक-यहां तक कि नैतिक जीवनचर्या अपनाने वाला सद्गृहस्थ सभी कर सकते हैं।