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नैतिक चरम / 317
जैन शास्त्रों में ऐसे उत्तम धर्म दश बताये गये हैं।
(1) क्षमा-क्रोध के बाह्य निमित्त कितने भी तीव्र हों किन्तु मन में क्रोध न आने देना। अपने घोर अपराधी और अपकारी के प्रति क्षमा भाव रखना, क्षमा कर देना।
(2) मार्दव-इसका अभिप्राय मान का, अभिमान का निरसन कर देना, हृदय से निकाल फेंकना; मृदुता और विनम्रता को हृदय में बसा लेना है।
(3) आर्जव-छल, कपट, कुटिलता का मूलोच्छेदन। (4) शोच-लोभ, लालच, लालसा आदि को निकाल फेंकना।
(5) सत्य-सत्य का मन, वचन, काय, सर्वांग में वास, रोम-रोम में सत्य प्रतिष्ठित होना।
(6) संयम-मन, वचन, काय और सभी इन्द्रियों का नियमन । इन सभी की अकुशल वृत्तियों का त्याग और कुशल प्रवृत्तियों में प्रवर्तन।
(7) तप-मलिन वृत्तियों का शोधन करना, उन्हें विशुद्ध बनाना। (8) त्याग-परिग्रह, बाहरी वस्तुओं को ग्रहण न करना, त्याग देना।
(9) आकिंचन्य-वस्तुओं के प्रति ममत्व-अपनेपन के भाव का त्याग करना, निष्परिग्रहत्व को दृढ़ करना।
(10) ब्रह्मचर्य-कामनाओं, वासनाओं पर विजय प्राप्त करना।
इन सभी धर्मो (Excellent virtues) का नीतिशास्त्रीय महत्व स्पष्ट है। क्षमा धर्म भी है और उच्चकोटि की नैतिकता भी। इसी प्रकार मार्दव (मान विजय), आर्जव (छल-कपट रहिता), शौच (लोभ, लालच का निरसन) सभी नैतिक प्रत्यय हैं।
सत्य तो नैतिकता का आधार ही है, इसके अभाव में तप नैतिकता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यही स्थिति तप, त्याग आदि के विषय में है। 1. (क) दसविहे धम्मे पण्णते त जहा-1. धेती 2. मुत्ती 3. अज्जवे 4. मद्दवे 5. लाघवे 6. संजमे 7. सच्चे 8. तवे 9. चियाए 10. बंभचेरवासे। समवायांग, समवाय 10, (दश प्रकार का धर्म कहा गया है-1. शान्ति (क्षमा) 2. मुक्ति (आकिंचन्य), 3. आर्जव 4. मार्दव 5. लाघव (शौच) 6. सत्य 7. संयम 8. तप 9. त्याग और 10. ब्रह्मचर्य)। (ख) उत्तम : क्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ।
-तत्वार्थसूत्र, 9,6