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314 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
( 18 ) जल्ल परीषह - पसीना आदि से शरीर पर धूल जम जाय तो मन में घृणा न लाना, स्नान संस्कार की इच्छा न करना ।
( 19 ) सत्कार - पुरस्कार परीषह - जीवन में श्रमण को सत्कार मिले तो गर्व नहीं करना और दुत्कार मिले तो खेद नहीं करना, समभाव में रहना । अपितु वृत्ति यह रखनी चाहिए -
( 20 ) प्रज्ञा परीषह - यदि ज्ञान का क्षयोपशम अधिक है, चमत्कारिणी प्रज्ञा है तो उसका मद न करना ।
(21) अज्ञान परीषह - यदि ज्ञान का क्षयोपशम कम है, स्मृति मन्द है, सीखा हुआ विस्मृत हो जाता है तो मन में हताश - निराश, खेदखिन्न न होना । ( 22 ) अदर्शन परीषह - अपनी श्रद्धा को विचलित न होने देना, तीर्थंकर भगवन्तों ने जैसे भाव फरमाए हैं उन पर दृढ़ विश्वास रखना ।
परीषहों के साथ शास्त्रों में उपसर्ग शब्द भी आता है । यह शब्द भी वेदना का ही परिचायक है । उपसर्ग तीन प्रकार के होते हैं - (1) देवकृत (2) मनुष्यकृत और ( 3 ) तिर्यंचकृत । ये तीनों ही साधक को भाँति-भाँति की पीड़ा पहुंचाते हैं और साधक इन्हें समभावपूर्वक सहन करके खरा उतरता है ।
यद्यपि परीषहों (और उपसर्गों का भी ) का अन्तर्भाव श्रमण के 26 वें गुण वेदन-समाध्यासना में हो जाता है, किन्तु यहां पृथक वर्णन का अभिप्राय नीतिशास्त्रगत इनका महत्व है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है- - सुख से भावित ज्ञान दुःख उत्पन्न होते ही विनष्ट हो जाता है, इसलिए यथाशक्ति अपने आप (आत्मा) को दुःख से भावित करना चाहिए ।'
यहाँ 'ज्ञान' शब्द में आचरण भी अन्तर्निहित है । इसक अभिप्राय यह है कि साधक सुखशीलिया तथा सुविधालोलुपी न बने, उसमें स्वभाव से कष्ट सहने की भी क्षमता आवश्यक है, अन्यथा विघ्न-बाधा कठिनाई आते ही वह स्वीकृत सुपथ से विचलित हो सकता है ।
जो बात धार्मिक आचरण के लिए सत्य है, वही नैतिक आचरण के लिए भी है। नीति - सुनीति पर दृढ़तापूर्वक प्रगति करने के लिए विरोध और कठिनाइयों को सहन करने की क्षमता आवश्यक है, अन्यथा साधक का नैतिक पतन होने में देर नहीं लगती ।
1. सुहेण भाविदं णाणं, दुहे जादे विणस्सति । तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेह भावियो ।।
- आ. कुन्दकुन्द - अष्ट पाहुड, मोक्षपाहुड, 62