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नैतिक चरम / 313
(7) अचेल परीषह - वस्त्र फट गये हों, जीर्ण-शीर्ण हो गये हों अथवा लुटेरों ने छीन लिये हों तो मन में अवसाद न करना और न यह सोचकर प्रसन्न होना कि अब नये वस्त्र मिलेंगे, अपितु समभाव में रहना ।
( 8 ) स्त्री परीषह - स्त्री को बन्धन, पतन, आसक्ति का कारण जानकर उनसे दूर रहना, मन में विकारी भाव न लाना । इसी प्रकार स्त्री साधिका को भी पुरुष के प्रति विकारी भाव नहीं लाना चाहिए । इस विकार को जीतना चाहिए।
( 9 ) अरति परीषह - अंगीकृत मार्ग श्रमणाचार का पालन करते हुए कठिनाइयाँ, असुविधाएं आयें तो खेदभिन्न न होना, स्वीकृत मार्ग के प्रति मन में अरुचि भाव न लाना, अपितु दृढ़तापूर्वक इसका पालन करना ।
( 10 ) चर्या परीषह - पाद विहार ( पैदल चलना) में होने वाले कष्टों को समभावपूर्वक सहना ।
( 11 ) निषद्या परीषह - ध्यान, कायोत्सर्ग आदि के लिए विषम भूमि में बैठना पड़े तो चित्त में अवसाद न लाना, समभूमि की इच्छा न करना । निर्जन वन में स्वाध्याय ध्यान करते सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि हिंसक प्राणी भी आ जाये तो भयभीत होकर आसन न छोड़ना अपितु अपने ध्यान - स्वाध्याय में निर्भीकता और दृढ़ता पूर्वक तल्लीन रहना ।
( 12 ) शय्या परीषह - साधु के विश्राम के लिए जैसा भी ऊबड़-खाबड़ अथवा समस्थान मिले तो उसमें रागद्वेष न करना, यही सोचकर समभाव रखना कि मुझे तो एक रात ही रहना है, फिर क्यों हर्ष - विवाद करूं ।
(13) आक्रोश परीषह - अपने प्रति कठोर, अप्रिय वचन सुनकर भी मन में क्रोध नहीं लाना ।
( 14 ) याचना परीषह - 'मैं उच्च कुल का हूं, भिक्षा कैसे मांगूं ? " ऐसा विचार न कर, साधु मर्यादा के अनुसार आहार, औषधि आदि गृहस्थों से माँगकर - याचना करके लेना ।
( 15 ) अलाभ परीषह - विधिपूर्वक याचना करने पर आवश्यक वस्तु की प्राप्ति न हो तो भी चित्त में खेद नहीं लाना ।
( 16 ) रोग परीषह - पूर्वकर्मोदय के कारण शरीर में किसी प्रकार की रोग-व्याधि आदि उत्पन्न हो जाय तो आकुल-व्याकुल न होना, हाय-हाय न करना, समभावपूर्वक शांत परिणामों से सहना ।
(17) तृण - स्पर्श परीषह - तृण की शय्या आदि के तृण शरीर में चुभें अथवा गमन करते समय पैरों में कांटे कंकर आदि चुभकर पीड़ा उत्पन्न करें तो उस पीड़ा को समभावपूर्वक सहना ।