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________________ नैतिक चरम / 311 राग अथवा स्नेह कुछ सीमा तक अनैतिक प्रवृत्तियों के प्रति उत्तरदायी होता है । यदि मानव के मन में संसार की किसी भी वस्तु की अल्पतम इच्छा भी शेष होती है तो उस वस्तु को प्राप्त करने के लिए वह अनैतिकता भी अपना सकता है, यदि नैतिक साधनों से वह वस्तु प्राप्त न हुई तो । (20-22 ) मन-वचन-काय समाहरणता' मन-वचन-काय को अकुशल अथवा व्यर्थ की प्रवृत्तियों से रोककर कुशल अथवा शुभ प्रवृत्तियों में लगाना, मन-वचन-काय समाहरणता है । समाहरणता का अभिप्राय है - बहिर्मुखी प्रवृत्तियों में जाते हुए मन आदि को रोकना और उन्हें अन्तर्मुखी बनाना । उनका सम्यक् प्रकार से व्यवस्थापन या विनियोजन करना । व्यर्थ के संकल्प-विकल्पों में पड़ा मन अधार्मिक भी होता है और अनैतिक भी। यही स्थिति वचन और काय की भी है । अनैतिक इस रूप में कि व्यर्थ का चिन्तन दुश्चिन्तन ही है और ऐसा दुश्चिन्तन अनैतिक ही माना जाता है ( 23-25) ज्ञान - दर्शन - चारित्र सम्पन्नता ज्ञान का अभिप्राय है- भली प्रकार सत्य तथ्य को जानना, दर्शन इस जाने हुए सत्य तथ्य पर विश्वास करना - श्रद्धा रखना और चारित्र इस बताये हुए मार्ग का आचरण करना है । इन तीनों से श्रमण साधक को संपन्न होना आवश्यक है । यह तीनों की नैतिक दृष्टि से आवश्यक हैं। क्योंकि ज्ञानी ही श्रेयमार्ग और पाप-मार्ग को जान सकता है, अज्ञानी नहीं जान सकता। नीति का मार्ग 1. उत्तराध्ययन सूत्र, अ. 29, सूत्र 56-56 में समाधारणता शब्द दिया गया है। 2. अन्नाणी किं काही? किं वा नाहीद सेय - पावंग - दशवैकालिक सूत्र, 4, 64 3. जिसको नैतिक आचरण कहा गया है, धर्मशास्त्रों में उसे चरित्र की संज्ञा से किया गया है | चारित्र के पांच भेद हैं (1) सामायिक चारित्र - सभी प्रकार की पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग करना । छेदोपस्थापनीय चारित्र - सर्व सावद्य त्याग (सर्व पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग) का छेदशः विभागशः पंच महाव्रतों के रूप में उपस्थापित ( आरोपित) करना । (3) परिहारविशुद्धि चारित्र - परिहार ( प्राणिवध से निवृत्ति ) । इसमें कर्म कलंक की विशुद्धि विशिष्ट साधना से की जाती है । (4) सूक्ष्म पराय चारित्र - इसमें क्रोध, मान, माया ये तीन कषाय उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं और लोभ सूक्ष्म रह जाता 1 ( 5 ) यथाख्यात चारित्र - इसमें अभी कषाय या तो उपशान्त हो जाते हैं, अथवा क्षीण हो - उत्तराध्ययन सूत्र, 28, 32-33, पृ. 481-82 के आधार से जाते हैं।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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