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________________ 310 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन (17) योग-सत्य ____ योग का अभिप्राय है मन-वचन और काया की प्रवृत्तियां। योग-सत्य में मन-वचन काया की प्रवृत्तियों में थोड़ी भी कुटिलता अपेक्षित नहीं हैं; तीनों ही सरल और सत्य से ओत-प्रोत हों। भाव-सत्य, करण-सत्य और योग-सत्य-तीनों ही परस्पर-सापेक्ष हैं। अन्तःकरण की सत्यता से योग ऋजु-सरल होते हैं और इनसे प्रभावित क्रिया भी सत्य से ओत-प्रोत होती है। परस्पर इनका कार्य-कारण और अविनाभाव सम्बन्ध है। ___इन तीनों की सत्यता ही नैतिकता की चरम स्थिति है। (18) क्षमा क्षमा को दैवी गुण कहा गया है। यह श्रमण का प्रमुख गुण है। क्षमा का अभिप्राय है-क्रोध को निष्फल कर देना। चाहे जितना भी क्रोध का अवसर आये, सामने वाला कितने ही अपशब्द कहे, कैसी ही ताड़ना-तर्जना करे किन्तु अपने मन में भी क्रोध उत्पन्न न होने देना, नीर के समान शीतल बने रहना। नीति में क्षमा का बहुत महत्व है। एक नीतिकार ने कहा है-जिसके हाथ में क्षमा रूपी शस्त्र है, उसका दुर्जन क्या बिगाड़ सकते हैं, उनका क्रोध उसी प्रकार शांत हो जायेगा जिस प्रकार तृणरहित स्थान पर गिरने से अग्नि स्वयं ही बुझ जाती है। लोक में भी उक्ति प्रचलित है अड़ते से चलता बने, जलते से जल होय । गाली सुन बहरा बने, तो कुछ गहरा होय। ‘गहरे' से प्रस्तुत सन्दर्भ में नैतिक उत्कर्षता का अभिप्राय है। क्योंकि क्षमाशीलता तभी व्यवहार में संभव हो पाती है, जब नैतिकता उसके हृदय की गहराइयों में बसी हो। (19) विराग विराग का अभिप्राय है-राग की अत्यधिक अल्पता अथवा राग का अभाव। 1. क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जनः कि करिष्यति। अतृणे पतितो वन्हिः स्वयमेवोपशाभ्यति॥
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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