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306 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
व्यक्ति, यदि उसके पास तन ढंकने को वस्त्र भी न हों, न खाने को पूरा अन्न हो
और न रहने को झौंपड़ी ही हो, फिर भी वह महापरिग्रही होता है, यदि उसके हृदय में पदार्थों के प्रति गृद्धता हो, उसकी लालसाएं, इच्छाएं असीमित हों।
जैन शास्त्रों ने सिर्फ बाह्य पदार्थों को ही परिग्रह नहीं माना अपितु उन भावनाओं और इच्छाओं तथा आवेग-संवेगों को भी परिग्रह में ही परिगणित किया है, जिनके कारण उसकी धर्म-साधना में, नैतिकता में और नैतिक आचार-व्यवहार में तनिक भी व्यवधान पड़ता है।
इस दृष्टिकोण से परिग्रह के दो भेद हैं-(1) अन्तरंग और (2) बाह्य।
अन्तरंग परिग्रह 14 हैं-(1) मिथ्यात्व (गलत धारणा अथवा विचारधारा), (2) वेद (स्त्री, पुरुष अथवा दोनों से काम-सेवन की इच्छा), (3) राग (आकर्षण-आसक्ति), (4) द्वेष (दुश्चिन्तन), (5) क्रोध, (6) मान, (7) माया (कपट), (8) लोभ, (9) हास्य, (10) रति (लगाव), (11) अरति (उद्वेग), (12) भय, (13) शोक, (14) जुगुत्सा।
ये सभी अन्तरंग परिग्रह नीतिशास्त्र के अनुसार अनैतिक प्रत्यय हैं। गलत धारणा, आसक्ति, दुश्चिन्तन, उद्वेग, शोक, किसी की हंसी उड़ाना, मजाक बनाना, कपट करना आदि सभी अनैतिकता के जनक और अनैतिक प्रवृत्तियों-व्यवहारों को बढ़ाने वाले हैं। कामेच्छा, क्रोध, अभिमान आदि तो स्पष्ट ही अनैतिक हैं।
___ श्रमण इन चौदह अन्तरंग परिग्रहों का संपूर्णतः त्याग कर देता है। क्योंकि परिग्रह को ग्रन्थ अथवा गाँठ कहा गया है और श्रमण निर्ग्रन्थ होता है, उसके हृदय में अंतरंग जीवन में कोई ग्रंथि नहीं होती।
बाह्य परिग्रह के अनगिनत प्रकार हैं-किन्तु आचार्यों ने -क्षेत्र, वास्तु, स्वर्ण, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, कुप्य इन 9 भेदों में वर्गीकृत किया है। 1. मूच्छिन्नधियां सर्व जगदेव परिग्रहः । मूर्छया रहितानां तु, जगदेवापरिग्रहः ॥
उद्धृत-श्री देवेन्द्र मुनि : जैनाचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. 851 2. (क) प्रश्नव्याकरण सूत्र टीका, पृष्ठ 541 (ख) कोहो माणो माया लोभों, पेज्जं तहेव दोसो य।
मिच्छत्त वेद अरइ, रइ हासो सोगो भय दुगच्छा ॥ -बृहत्कल्पभाष्य, 831 (ग) मिच्छत्त वेद रागा, हासादि भय होति छद्दोसा।
चत्तारि तह कसाया, चोद्दसं अब्भंतरा गंथा ॥ प्रतिक्रमणत्रयी, पृ. 175 3. आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति अ. 6