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नैतिक चरम / 305
पीडायुक्त करने का भरपूर प्रयास करे। श्रमण अथवा श्रमणी तो मानवता के मूर्तमन्त होते हैं। यदि श्रमण डूबती हुई, सर्पदंश से पीड़ित अथवा कांटे चुभने की वेदना से व्यथित श्रमणी की और इसी तरह श्रमणी भी श्रमण की उपेक्षा कर दे तो यह घोर मानवीय और अनैतिक होगा।
फिर सेवा, वैयावृत्य, अन्य श्रमण-श्रमणियों को सुख-साता पहुंचाना तो जैन संघ का अनिवार्य नियम है और तप भी है। इसे प्राथमिकता दी गई है। इसकी उपेक्षा करना श्रमणत्व से और यहां तक कि नैतिकता से भी पतित होना
यही कारण है कि ब्रह्मचर्य में भी नैतिकता की उपेक्षा नहीं की गई है। श्रमण संघ के नियामक नैतिकता के प्रति जागरूक रहे हैं। (5) अपरिग्रह महाव्रत
परिग्रह, जैन शास्त्रों के अनुसार मूर्छा है।' मात्र बाह्य पदार्थ परिग्रह नहीं हैं, अपितु उन पदार्थों में आसक्ति, ममत्वभाव, मेरेपन की भावना ही परिग्रह है। मानव जीवन के लिए भी, शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बाह्य पदार्थों का उपयोग उसी प्रकार अनिवार्य है, जैसे स्टीमर के लिए सागर की अनन्त जल-राशि। जब तक जल-स्टीमर के नीचे रहता है, वह स्टीमर को गतिशील बनाये रखने में सहायक होता है; किन्तु जैसे ही स्टीमर के अन्दर जल का प्रवेश हुआ कि वह उसे सागर की अतल गहराइयों में डूबा भी देता है। यही स्थिति परिग्रह की है। जब तक पदार्थ उपयोग की सीमा तक रहते हैं तब तक वे साधक की साधना में सहायक बनते हैं और ज्योंही उन पदार्थों के प्रति साधक के मन में मूर्छाभाव उत्पन्न हुआ, यानी उन पदार्थों का प्रवेश भावना, लालसा, आसक्ति के मार्ग से साधक के हृदय में हुआ कि उसकी भी समस्त साधना चौपट हो जाती है, वह साधना के उच्च स्थान से, नैतिक चरम से पतित हो जाता है।
वास्तव में अपरिग्रह एक अपेक्षा से अनासक्ति ही है। इस दृष्टि कोण से धन-वैभव के अपार भंडार होते हुए भी व्यक्ति अल्प-परिग्रही हो सकता है और उसके हृदय में उस वैभव के प्रति अनासक्ति हो। इसके विपरीत एक निर्धन 1. (क) न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा।
-दशवैकालिक, 6, 20 (ख) मूर्छा परिग्रहः।
-तत्वार्थ सूत्र, 7, 10