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304 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
ब्रह्मचर्य का माहात्म्य प्रगट करते हुए कहा है कि दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को देव, दानव, गन्धर्व आदि सभी देवगण नमस्कार करते हैं। इसे नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, समयक्त्व आदि का मूल भी कहा गया है।
ब्रह्मचर्य की महिमा सभी धर्मों में गाई गई है।
जैन परम्परा में जो इसका इतना माहात्म्य और महत्व वर्णित किया गया है, उसका हार्दै यही है कि श्रमण इस ब्रह्मचर्य महाव्रत का पूर्ण रूप से, निरपवाद पालन करे, इसमें किंचित भी दोष न लगने दे।
यद्यपि सामान्यतः शास्त्रों में ब्रह्मचारी के लिए स्त्री मात्र का स्पर्श भी वर्जित बताया गया है। किन्तु यदि कोई साध्वी नदी अथवा तालाब में डूब रही है, अन्य कोई स्त्री अथवा पुरुष पास में नहीं है, नौका आदि का साधन भी नहीं है, जिससे उसे बचाया जा सके, और श्रमण यदि तैरना चाहता है तो वह उसे डूबने से बचा सकता है। इसी प्रकार वह क्षिप्तचित श्रमणी को पकड़ सकता है। सर्पदंश की स्थिति में श्रमण श्रमणी से और श्रमणी श्रमण से अवमार्जन करा सकती है। पैर में कांटा चुभ जाने पर भी ऐसा ही विधान है। किन्तु इन सब परिस्थितियों के लिए अनिवार्य है कि अन्य कोई साधन-यथा श्रमणी के लिए स्त्री और श्रमण के लिए पुरुष उपलब्ध न हो और स्थिति अत्यन्त विषम बन चुकी हो।
ब्रह्मचर्य आध्यात्मिक, धार्मिक, नैतिक, मानसिक, शारीरिक आदि सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इसके पालन से शरीर का ओज-तेज बढ़ता है, जिससे साधक साधना में तेजस्वी होता है।
नैतिक दृष्टि से तो इसका अत्यधिक महत्व है। सामान्य गृहस्थ भी ब्रह्मचर्य पालन से नैतिक माना जाता है, जिसमें श्रमण साधु के लिए तो यह अनिवार्य है।
अपवाद के रूप में जो विशिष्ट नियम निर्धारित किये गये हैं उनका आधार नीति है। यह प्रत्येक मानव का कर्तव्य है कि वह पीड़ित व्यक्ति को
1. उत्तराध्ययन सूत्र, 16, 16।। 2. प्रश्नव्याकरण सूत्र, संवरद्वार, अध्ययन 4 । 3. वृहद्कल्प सूत्र, उ. 6, सूत्र 7-12 । 4. वही, उ. 6, सूत्र 7-12 । 5. व्यवहार सूत्र, उ. 5, सूत्र 21। 6. वृहकल्प सूत्र, उ. 6, सूत्र 3 ।