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________________ नैतिक चरम / 303 किन्तु ऐसी परिस्थिति हो जाय कि श्रमण ऐसे स्थान पर पहुंचे, जहां अन्य स्थान की सुविधा नहीं हो, भयंकर शीत अथवा वर्षा हो तो वह पहले ठहर जाय और बाद में आज्ञा लेने का प्रयास करे। विशेष परिस्थिति में श्रमण को जो यह अपवाद नियम दिया गया, वह उन परिस्थितियों में आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है । यदि सर्दी लग जाने से वह बीमार हो जाता, ज्वर से आक्रान्त हो जाता तो उसकी संयम - साधना की निर्बाधता में विघ्न उपस्थित हो सकता था । यह सुविधा शरीर की दृष्टि से नहीं, अपितु संयम-साधना की दृष्टि से दी गई है। इसी अपेक्षा से यह नैतिक है । (4) ब्रह्मचर्य महाव्रत श्रमण नवकोटि ब्रह्मचर्य का पालन करता है । वह नारी जाति का, चाहे वह मानवी हो, देवी हो अथवा मादा पशु हो, न मन में चिन्तन करता है, न ऐसे वचन ही बोलता है और न शरीर से स्पर्श ही करता है, यहां तक कि नवजात बालिका का स्पर्श भी वह नहीं करता । ऐसा ही नियम श्रमणी अथवा साध्वी के लिए पुरुष जाति के प्रति है, वह भी पुरुष मात्र का स्पर्श नहीं करती। 1 ब्रह्मचर्य का जैन साधना में अतिमहत्वपूर्ण स्थान है । इसे सूत्रकृतांग सूत्र में उत्तम तप' कहा गया है । इसीलिए ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त नवबाड़' का विधान किया गया है और साधु-साध्वी इन बाड़ों का बड़ी तत्परता और अत्यधिक जागरूकता के साथ पालन करते हैं । 1. (क) व्यवहार सूत्र, 9, 11 (ख) श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैन आचार: सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. 515. 2. तवेसु वा उत्तम बंभचेरं । - सूत्रकृतांग सूत्र, अध्ययन 6 3. (क) उत्तराध्ययन सूत्र, 16, 3-12 (1) विविक्त शयनासन ( 2 ) स्त्री कथा परिहार ( 3 ) निषद्यानुपवेशन (4) स्त्री अंगोपांग अदर्शन ( 5 ) कुड्यान्तर ( दीवार आदि की आड़ से ) शब्द श्रवण-विवर्जन ( 6 ) पूर्व भोग स्मरण-वर्जन ( 7 ) प्रणीत भोजन त्याग ( 8 ) अति भोजन त्याग ( 9 ) विभूषा वर्जन । (ख) पंडित आशाधर ने अनगार धर्मामृत (4, 61) में दस नियम बताये हैं- (1, रूप, रस, गंध और शब्द में रस न लेना, (2) जननेन्द्रिय में विकार उत्पन्न करने वाले कार्य न करना ( 3 ) कामोद्दीपक आहार न करना (4) महिलाओं द्वारा उपभोग किए हुए शयन - आसन आदि का उपभोग न करना (5) स्त्रियों के कामोद्दीपक अंगों को न देखना (6) स्त्रियों को सत्कार न करना ( 7 ) अपने शरीर का संस्कार न करना ( 8 ) पूर्व (गृहस्थाश्रम में) सेवित रति का स्मरण न करना ( 9 ) भविष्य में काम-क्रीड़ा की किंचित् भी इच्छा न करना ( 10 ) इष्ट रूप आदि में मन को संयुक्त न करना ।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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