SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 302 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन उससे पूछे कि अमुक पशु (उदाहरणार्थ हिरन) किधर गया है तो साधु मौन रहे, लेकिन मौन से यदि काम न चले, अथवा मौन स्वीकृतिसूचक हो जाये तो साधु विपरीत दिशा में संकेत कर दे अथवा नहीं जानता हूं, ऐसा कह दे। इससे यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है कि श्रमण के हृदय में सत्य के प्रति आदर नहीं होता। अपितु जैन अंग शास्त्र प्रश्नव्याकरण में तो सत्य को भगवान कहा गया है और यहां तक कि गौतम गणधर भी आनन्द श्रावक से अपने असत्य कथन के लिए क्षमा मांगते हैं भगवान महावीर का स्पष्ट सन्देश है कि सत्य का वरण करने वाला साधक सभी कर्मो को क्षय कर देता है, संसार से पार हो जाता है। __ अतः यहां अपवाद रूप में श्रमण द्वारा असत्य कथन किसी जीवधारी की रक्षा के निमित्त ही किया गया है। यह सत्य को गौण करके अहिंसा महाव्रत की रक्षा के निमित्त ही असत्य कथन हुआ है। और ऐसा असत्य नीति के अन्तर्गत भी नैतिक माना जाता है। (3) अस्तेय महाव्रत अस्तेय को जैन आगमों में 'दत्तादान' कहा गया है और इसके विपरीत स्तेय को अदत्तादान। श्रमण अस्तेय महाव्रत को ग्रहण करते समय प्रतिज्ञा करता है-मैं आज से समस्त प्रकार के अदत्तादान का त्याग करता हूं। वह द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से-ग्राम में, नगर में, अरण्य में (कहीं भी), सचित्त या अचित्त, स्थूल अथवा सूक्ष्म कोई भी पदार्थ बिना दिये ग्रहण नहीं करता। यहां तक कि अपने ठहरने योग्य स्थान भी उसके स्वामी को अनुमति से लेता है, उसकी पूर्व अनुमति पाकर ही वह ठहर सकता है। 1. (क) देखिए-आचारांग 2, 3, 3, सूत्र 510 तथा वृत्ति। जाणं वा णो जाणं ति वदेज्जा।। (ख) निशीथचूर्णि भाष्य,गाथा 322 । 2. सच्चं खु भगवं। -प्रश्नव्याकरण सूत्र, संवरद्वार, अध्ययन 2, 3. (क) उपासकदशांग सूत्र, अध्ययन 1, (ख) मुनि श्री कन्हैयालाल जी कमल : चरणानुयोग, सूत्र 106, पृ. 157 4. आचारांग सूत्र, 1, 3, 2; 1, 3, 3, 5. आचारांग सूत्र, श्रुतस्कन्ध 2, अ. 7, उ. 1, सूत्र 607 6. दशवैकालिक सूत्र, अध्ययन 4, सूत्र 13
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy