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________________ नैतिक चरम / 301 (1) अहिंसा महाव्रत अहिंसा सार्वभौम है। यह धर्म तो है ही, नीति का भी प्रमुख प्रत्यय है । सभ्य संसारव्यापी धर्मों और नीतियों की आधारशिला ही यही है । धर्म के रूप में यह समत्व का आधार है, यानी समताभाव की अहिंसा है । संसार के सभी प्राणियों के प्रति समानता का भाव रखना, अपने-पराए की भेद-दृष्टि से दूर रहना अहिंसा धर्म है 1 नीति के रूप में अहिंसा कर्म-अकर्म, कर्तव्य - अकर्तव्य का विवेक कराती है। सद्-असद् प्रवृत्ति का निर्णय करती है। श्रमण अहिंसा का पालन बड़ी सूक्ष्मता से करता है । चलते-फिरते जीवों को तो किसी प्रकार का कष्ट देता ही नहीं, यहां तक कि वह हरित वनस्पति (plants of green vegetables) को भी स्पर्श नहीं करता क्योंकि स्पर्श- मात्र से भी उसे पीड़ा होती है। यह उत्सर्ग मार्ग है। किन्तु यदि कोई श्रमण पर्वत पर चढ़ या उतर रहा है, अथवा ऐसी स्थिति आ जाय कि वह अपना सन्तुलन न रख सके, गिरने लगे तो वह किसी वृक्ष को पकड़ सकता है । यह अपवाद मार्ग अथवा नीति है । ' इसमें हेतु यह है कि गिरने से श्रमण को चोट लग सकती है, उसके पैर की हड्डी टूट सकती (fracture ) है, अन्य कीड़े-मकोड़े (creatures) क्षुद्र प्राणियों की हिंसा भी हो सकती है। उन सबकी रक्षार्थ ही अपवाद मार्ग अथवा नीति का नियम अहिंसा महाव्रत के सन्दर्भ में निरूपित किया गया । वस्तुस्थिति यह है कि उत्सर्ग मार्ग से निर्धारित नियम तो वे सामान्य नियम हैं जिनका सामान्य परिस्थितियों में पालन किया जाना अनिवार्य है, किन्तु विशिष्ट परिस्थितियों में विशिष्ट नियमों का अनुपालन किया जा सकता है। प्रथम रूप धर्म है और दूसरा तत्कालीन विशिष्ट परिस्थिति में आचरण करने नीति है । (2) सत्य महाव्रत सामान्यतः साधु नव कोटि से सत्य का आचरण करता है। उसके मन-वचन काय में रग-रग में सत्य का वास होता है । किन्तु ऐसी परिस्थिति आ जाये, जैसे- श्रमण वन में विहार करके जा रहा है, उस समय कोई शिकारी 1. देखिए - आचारांग, श्रुतस्कन्ध 2, ईर्याध्ययन |
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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