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________________ 300 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन नहीं होता, संयमभाव प्रमुख होता है। ___ अपवाद मार्ग को हम 'आपत्ति काले मर्यादा नास्ति' नहीं मान सकते। बल्कि यह विपरीत परिस्थिति व विकट समस्या का विवेकयुक्त समाधान माना जा सकता है। इस दृष्टि से अपवाद-मार्ग को श्रमणाचार में नीति की संज्ञा दी जा सकती है। इसी दृष्टिकोण के आधार पर श्रमण के 27 गुणों का आध्यात्मिक, धार्मिक और नीति संबन्धी विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। श्रमण के 27 गुणों का विवेचन समवायांग सूत्र में निरूपित श्रमण के 27 गुण हैं-(1-5) पांच महाव्रत, (6-10) पांच इन्द्रियों का निग्रह (11-14) चार कषाय विवेक (15-17) तीन सत्य (18) खंति-क्षमा (19) विरागता (20) मनसमाधारणता (21) वचन समाधारणता (22) कायसमाधारणता (23) ज्ञानसम्पन्नता (24) दर्शनसम्पन्नता (25) चारित्रसम्पन्नता (26) वेदना समाध्यासना (27) मारणान्तिक समाध्यासना। पाँच महाव्रत श्रमण के लिए पालनीय पांच महाव्रत हैं-(1) अहिंसा महाव्रत (2) सत्य महाव्रत (3) अस्तेय महाव्रत (4) ब्रह्मचर्य महाव्रत और (5) अपरिग्रह महाव्रत। श्रमण इन महाव्रतों का पालन तीन करण और तीन योग से कहता है। करण का अभिप्राय है-प्रवृत्ति के साधन। ये तीन हैं-(1) कृत-स्वयं करना। (2) कारित-किसी दूसरे को आज्ञा अथवा प्रेरणा देकर उससे करवाना और (3) अनुमोदन-किसी दूसरे द्वारा किये हुए कार्य की प्रशंसा करना, उसे मौन अनुमति देना, काया से ऐसी चेष्टा करना अथवा संकेत करना जिससे अनुमति की प्रतीति हो। योग तीन हैं-(1) मन (2) वचन और (3) काया। श्रमण क्योंकि अपने सभी महाव्रतों का तीन करण तीन योग से पालन करता है अथवा सिक्के के दूसरे पहलू की दृष्टि से कहा जाय तो हिंसा, असत्य, अस्तेय, अब्रह्म और परिग्रह इन पांचों पापों अथवा अनैतिकताओं के तीन करण तीन योग से त्यागता है, प्रत्याख्यान करता है, इसलिए इसका प्रत्याख्यान नव कोटि प्रत्याख्यान कहलाता है।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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