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नैतिक चरम / 299
उत्सर्ग मार्ग का अभिप्राय है आन्तरिक जीवन, चारित्र और सद्गुणों की रक्षा, शुद्धि और अभिवृद्धि के लिए, प्रमुख नियमों का विधान और उनका पालन, तथा अपवाद का अर्थ है जीवन की रक्षा हेतु तथा उसकी शुद्धि, वृद्धि के लिए बाधक नियमों का विधान एवं परिस्थिति का आकलन करते हुए यथाशक्य अनुपालन।'
आचार्य जिनदास गणी महत्तर ने लिखा है- जो बातें उत्सर्ग मार्ग में निषिद्ध की गई हैं, वे सभी बातें कारण उपस्थित होने पर कल्पनीय व ग्राह्य हो जाती हैं । इसका कारण यह है कि उत्सर्ग और अपवाद दोनों का लक्ष्य एक है, वे एक दूसरे के पूरक हैं। साधक दोनों के सुमेल से ही साधना के पथ पर बढ़ सकता है। यदि उत्सर्ग और अपवाद दोनों एक दूसरे के विरोधी हों तो वे उत्सर्ग और अपवाद नहीं हैं, किन्तु स्वच्छन्दता के पोषण करने वाले हैं । आगम साहित्य में दोनों को मार्ग कहा है। एक मार्ग राजमार्ग की तरह सीधा है तो दूसरा मार्ग जरा घुमावदार है ।
वस्तुस्थिति यह है कि मूल आगमों में तो अपवाद मार्ग का वर्णन नहींवत् है, वहां तो उत्सर्ग मार्ग का ही निरूपण है। अपवाद मार्ग का वर्णन उत्तरकालीन भाष्यों, चूर्णियों आदि में प्राप्त होता है । इसका कारण यह है कि देश की बदलती परिस्थितियों के कारण ज्यों-ज्यों शुद्ध श्रमणाचार के निर्वाह में कठिनाइयाँ आती गईं त्यों-त्यों आचार्यों को अपनी निर्मल प्रज्ञा से व्यावहारिक निर्णय करने पड़े । ये निर्णय ही अपवाद - मार्ग कहलाए। चूंकि वे निर्णय उत्सर्ग मार्ग के पूरक और श्रमण के आन्तरिक जीवन की शुद्धि-वृद्धि संरक्षा- सुरक्षा में सहायक थे अतः दोनों को ही अविरोधी माना गया ।
यहां यह बात विशेष रूप से ध्यान में रखनी आवश्यक है कि अपवाद का सेवन विवशतापूर्वक किया जाता है। साधक यह अच्छी तरह जानता है- यदि मैं अपवाद का सेवन नहीं करूँगा तो मेरे ज्ञान आदि गुण विकसित नहीं हो सकेंगे। उसी दृष्टि से वह अपवाद का सेवन करता है। अपवाद के सेवन करने में सद्गुणों का अर्जन और संरक्षण प्रमुख लक्ष्य होता है। अपवाद में कषाय भाव
1. देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैनाचार: सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. 508
2. जाणि उस्सग्गे पडिसिद्धाणि उप्पण्णे कारणे सव्वाणिवि ताणि । कप्पति । ण दोसो निशीथचूर्णि 5245 - उद्धृत (देवेन्द्र मुनि शास्त्री) जैनाचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ.
509
3. (देवेन्द्र मुनि शास्त्री) जैनाचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. 509