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298 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
प्रति समान भाव रखता है, वह श्रमण है। इसीलिए कहा गया है कि श्रमण सुमना होता है, पापमना नहीं ।
पाप का अभिप्राय अनैतिकता है। धर्मशास्त्रों में जिसे 'पाप' संज्ञा दी गई है, नीतिशास्त्र उसे ही बुराई ( evil) कहता है, जो कि श्रमण में बिल्कुल नहीं होती - सुमना के रूप में वह सबके प्रति सद्भाव, कल्याण, भावना, हितदृष्टि आदि रखते हुए नैतिक चरम (Ethical utmost ) की स्थिति पर अवस्थित रहता है।
श्रमण के सत्ताईस गुण'
जैन शास्त्रों मे श्रमण के 27 गुण बताये गये हैं । यद्यपि शास्त्रों में इनका वर्णन धार्मिक दृष्टिकोण से किया गया है, किन्तु जैसा पूर्व पृष्ठों में लिखा जा चुका है कि इस स्थिति पर आकर नीति धर्म बन जाती है अतः इस दृष्टिकोण से इन गुणों का नीतिपरक महत्व भी है
आगे की पंक्तियों में श्रमण के सत्ताइस ( 27 ) गुणों का महत्व धर्म और नीति दोनों ही दृष्टिकोण से वर्णित किया जा रहा है। उत्सर्ग और अपवाद मार्ग
इस वर्णन से पूर्व तक बात जान लेना आवश्यक है कि श्रमणाचार ( श्रमण के व्यावहारिक आचार) के दो मार्ग शास्त्रों में वर्णित हैं - (1) उत्सर्ग मार्ग और (2) अपवाद मार्ग । ये जैन साधना की सरिता के दो तट भी कहे जा सकते हैं।
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उत्सर्ग और अपवाद का लक्ष्य एक ही है, और वह है साधक को साधना के पथ पर आगे बढ़ाना। ये दोनों परस्पर एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं । इनमें मुख्य और गौण का अन्तर है । उत्सर्ग मार्ग मुख्य है और अपवाद मार्ग को गौण कहा गया है।
1. (क) समवायांग, समवाय 27, सूत्र 1 (ख) पंचमहव्वयजुत्तो पंचिदिय संवरणो ।
उहि कसायमुको तिओ समाधारणीया ॥ तिसच्च सम्पन्नतिओ खंति संवेगरओ । वेयणमच्चअहियासंणा साहुगुणा सत्तवीसं ॥