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296 / जैन नीतिशास्त्र : एक पारेशीलन
"देवराज आत्म-साधक के जीवन में आज तक यह न कभी हुआ और न कभी होगा, और न अब ही यह हो सकता है कि आत्मसिद्धि या मुक्ति किसी दूसरे के बल पर या दूसरे की सहायता से प्राप्त की जा सके। साधक का आदर्श है-एगोचरे खग्गविसाणकप्पे-वह अकेला अपने पुरुषार्थ से चलता रहे।
प्राकृत भाषा के 'समण' शब्द का संस्कृत रूपान्तर 'श्रमण' संस्कृत विद्वानों ने किया है; किन्तु प्राकृत भाषा के 'समण' शब्द के संस्कृत में तीन रूपान्तर होते हैं-(1) सम, (2) श्रम और (3) शम। इन तीनों में ही समण अथवा श्रमण शब्द की विशिष्टता का रहस्य छिपा हुआ है।
(1) सम-सभी को-प्राणिमात्र को अपने (अपनी आत्मा के) समान मानना। (अप्पसमं मनिज्ज छप्पिकाए)-छहकाया (संसार के सभी सूक्ष्म और स्थूल प्राणी) के प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझे।
(2) शम-इसका अभिप्राय है शान्ति। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों का शमन करना, सदा अपनी आत्मा को उपशम भाव की शांत प्रशान्त गंगा में निमज्जित करते रहना।
जैन परम्परा में तो उवसमसारं खु सामण्णं-श्रमणत्व का सार ही उपशम है, कहकर उपशम-शान्ति का महत्व प्रदर्शित किया गया है।
(3) श्रम-इसका अभिप्राय ऊपर बताया जा चुका है कि मनुष्य स्वयं ही अपना, अपनी आत्मा का विकास करता है, अपने सुख-दुःख का स्वयं ही कर्ता है और स्वयं ही उसका भोक्ता है। इस तथ्य को उत्तराध्ययन सूत्र में भली भाँति निरूपित किया गया है। वहाँ कहा गया है
आत्मा ही अपने सुख-दुःख का कर्ता और विकर्ता (विनाशकता) है। सुप्रस्थिति (सत्प्रवृत्ति करने वाला) आत्मा ही अपना (स्वयं का) मित्र है और दुःप्रस्थिति (दुष्प्रवृत्ति करने वाला) आत्मा ही अपना (स्वयं का) शत्र है।
इसी भाव को स्वामी विवेकानन्द ने इन शब्दों में व्यक्त किया है
1. (क) उपाचार्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री : भगवान महावीर : एक अनुशीलन, पृ. 204 (ख) आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, पृ. 267 (ग) आचार्य गुणचन्द्र : महावीर चरियं, 5/45
(च) और भी देखिए-आचार्य नेमिचन्द्र : महावीर चरियं, 882 2. विवेचन के लिए विशेष सन्दर्भ देखें-अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग 7/410 3. उत्तराध्ययन सूत्र, 20/37