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________________ नैतिक चरम / 295 धर्मशास्त्र की भाषा में इसी स्थिति को व्यक्ति का 'धर्ममय' अथवा धर्मात्मा होना कहा गया है। धर्मात्मा का अभिप्राय है, जिसके आन्तरिक और बाह्य जीवन (Internal and external life) में, सम्पूर्ण क्रिया-कलापों में, व्यवहार में, भाषा व्यवहार में, भाषा में धर्म रम गया हो, धर्म से जो पूर्णतः ओत-प्रोत हो, वही धर्मात्मा कहा जाता है। संक्षेप में इस प्रकार कहा जा सकता है-जिसकी आत्मा, मन वचन-काय तीनों योग और कृत, कारित, अनुमोदिन (कार्य-व्यापार के हेतु-Instrument) तीनों करण धर्ममय हो जाते हैं, उस व्यक्ति की इस स्थिति, वृत्ति-प्रवृत्ति को नीतिशास्त्र की शब्दावली में हमने नैतिक चरम कहा है। इसका अभिप्राय यह है कि उस व्यक्ति में शुभ ही शुभ (Good and only good) ही होता है, अशुभ का लेश भी नहीं होता। उसकी सभी क्रियाएं और प्रवृत्तियां स्व-पर-कल्याण के निमित्त ही होती हैं। उसमें स्वार्थ, पूजा, श्लाघा, दंभ आदि का अंश भी नहीं होता। भगवान महावीर ने ऐसे धर्मात्मा पुरुष के लिए-जोगसच्चे, करणसच्चे-योगसत्य, करणसत्य कहा है। __ जैन शब्दावली में ऐसे व्यक्ति को श्रमण कहा गया है और उसकी वृत्ति-प्रवृत्तियों को श्रमणाचार की संज्ञा से अभिहित किया गया है। यद्यपि वैदिक धर्म का 'संन्यासी', बौद्ध परम्परा का 'भिक्खु', ईसाई धर्म का parson और इस्लाम धर्मानुमोदित 'दरवेश' शब्द जैन परम्परा के श्रमण शब्द के समकक्ष कहे जा सकते हैं किन्तु यह विचारणा आपेक्षिक सत्य ही है, क्योंकि श्रमण शब्द में कुछ ऐसी विशिष्टताएं व मर्यादाएं निहित हैं, जो अन्य परम्पराओं के शब्दों में व व्यक्तिगत आचार में अभिव्यक्त नहीं हो पातीं। 'श्रमण' शब्द की विशिष्टताएं सर्वप्रथम श्रमण शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार कर लें। जैनाचार्यों ने 'श्रमण' शब्द को संस्कृत के 'श्रम' धातु से व्युत्पन्न माना है। उनके विचार से श्रम का अभिप्राय है-व्यक्ति अपना विकास स्वयं परिश्रम द्वारा करता है। सुख-दुःख, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है। विद्वान आचार्यों की यह मान्यता भगवान महावीर के उस उत्तर पर आधारित प्रतीत होती है, जो भगवान ने देवराज इन्द्र को उस समय दिया था जब उसने भगवान की सेवा में रहकर कष्ट निवारण की अनुमति चाही थी। भगवान ने कहा था
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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