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नैतिक चरम (ETHICAL UTMOST)
श्रमणाचार (Conduct of a monk)
नैतिक चरम का अभिप्राय है नीति का अर्थ अथवा सदाचार में विलीन हो जाना। नैतिक नियम इस अवस्था में आकर धर्माचरण में विलीन हो जाते हैं। उनकी सत्ता धर्मानुमोदित आचार में एकमेक हो जाती है। ठीक उसी प्रकार जैसे “उदधाविव सर्वसिंधवः" नदियां समुद्र में मिलकर महार्णव कहलाने लगती
मानव सर्वप्रथम व्यसन त्याग के रूप में नैतिकता की ओर कदम बढ़ाता है और फिर नीति के व्यावहारिक बिन्दुओं को अपने कार्य-व्यापार में समायोजित कर नैतिक धरातल को परिपुष्ट करता है। तदुपरान्त वह गृहस्थ जीवन में रहकर भी व्रतबद्ध हो जाता है, अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि व्रतों का पालन करके अपने जीवन को चमकाता है और नैतिक उत्कर्ष की संप्राप्ति करता है। जब उसके कदम इस स्थल पर मजबूती से जम जाते हैं, स्खलना-कंपन आदि नहीं होते तो वह अपने दृढ़ कदम नैतिक चरम की ओर बढ़ाता है।
नीतिशास्त्रीय शब्दों में, जब नीति का साधक अपने चरम लक्ष्य (Ultimate good) को-नैतिक शुभ और शुद्ध (Moral good and ultimate good) को प्राप्त कर लेता है तब वह नैतिक चरम (Ethical utmost) की स्थिति पर पहुंच जाता है।