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नैतिक उत्कर्ष / 291
करती है। आवश्यकताएँ (Necessities) कम होना, नैतिक जीवन बिताने के लिए सरल और सुगम मार्ग प्रस्तुत करता है।
(8) आरम्भत्याग प्रतिमा-सातवी प्रतिमा में साधक अपनी निजी आवश्यकताओं को पर्याप्त रूप से कम कर लेता है, वह bare necessities तक ही सीमित रह जाता है; किन्तु इस प्रतिमा में वह व्यापार आदि का भी त्याग कर देता है, सारा उत्तरदायित्व दूसरों को सौंप कर स्वयं निवृत्ति की ओर उन्मुख होता है।
यद्यपि धार्मिक दृष्टि से आरम्भ का अर्थ हिंसात्मक क्रिया है; किन्तु ऐसे व्यापार भी हो सकते हैं जिनमें हिंसा हो ही नहीं। यथा-नैतिक, सांस्कृतिक विषयों पर प्रवचन देने का व्यवसाय, धार्मिक एवं नैतिक पुस्तकें लिखने का व्यवसाय, आदि। ये भी आज के युग में व्यवसाय, अथवा जीविका उपार्जन के साधन हैं।
इनमें से धार्मिक, समाज-सुधारक, नैतिक, शिक्षाप्रद प्रवचन एवं पुस्तक-लेखन के अतिरिक्त अन्य सभी ऐसे व्यवसाय जिनमें तनिक भी हिंसा की संभावना हो, इस प्रतिमा का धारी श्रावक छोड़ देता है।
किन्तु वह अभी परिग्रह का त्याग नहीं करता, संपत्ति अथवा संपत्ति के कुछ अंश पर स्वामित्व रखता है, इसका कारण यह है कि धार्मिक और समाज सेवा के कार्यों में, मानवता के हित के लिए वह उस संपत्ति का उपभोग कर सकता है।
सामाजिक और नैतिक दृष्टि से उसकी यह प्रवृत्ति महत्व रखती है, कारण यह है कि संभवतः पुत्र आदि उसकी भावना पूरी होने में सहयोगी न बनें।
(9) प्रेष्य-परित्याग प्रतिमा-आठवीं प्रतिमा में श्रावक स्वयं आरंभ का त्याग करता है, किन्तु इस प्रतिमा में वह दूसरों से भी आरम्भ करने का त्याग कर देता है। ___ वह किसी भी वाहन यथा-वायुयान, जलयान, कार, स्कूटर आदि का न स्वयं प्रयोग करता है, न इसके प्रयोग के लिए किसी अन्य से भी कहता ही है। ___गृह-निर्माण, पचन-पाचन (भोजन पकाना-पकवाना), विवाह आदि जिन कार्यों में थोड़ा भी आरम्भ होता है, उन सभी कार्यों को वह न स्वयं करता है, न दूसरों से ही करवाता है। यहाँ तक कि वह स्वजनों, परिजनों, अनुचरों पर भी अनुशासन नहीं करता।
उसके परिग्रह की वृत्ति और भी कम हो जाती है।