SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैतिक उत्कर्ष / 289 अपने सत्य दृष्टिकोण के प्रति इतना दृढ़ आस्थाशील भी होता है कि कैसी भी विषम परिस्थिति आवे वह अपने श्रद्धान-सम्यक् श्रद्धा से रंचमात्र भी विचलित नहीं होता, न ही संशयशील होता है। (2) व्रत प्रतिमा-इसमें श्रावक पांच अणुव्रतों का तो सम्यक् प्रकार से पालन करता है, उनमें किसी प्रकार का दोष नहीं लगने देता।' तीन गुणव्रतों का भी अभ्यास करता है। किन्तु सामायिक आदि चारों शिक्षाव्रतों का सम्यक् रूप से पालन नहीं कर पाता। इसमें परिस्थितियां कारण बन जाती हैं। किन्त उसकी श्रद्धा-प्ररूपणा सम्यक् होती है। यह प्रतिमा नैतिक दृष्टि से विधानात्मक है। अणुव्रतों का निर्दोष पालन नैतिक आचरण में दृढ़ता ही सूचित करता है। उसका व्यावहारिक जीवन भी निर्दोष हो जाता है, क्योंकि वह माया (छल-कपट), मिथ्या (गलत दृष्टिकोण) और निदान (व्रत के भौतिक लाभ की आकांक्षा या भोगाकांक्षा-अभीप्सा, अभिलाभा) को त्याग चुका होता है। इस कारण उसके जीवन मे अनैतिकता का प्रवेश नहीं हो पाता। वह सर्वदा नीतिपूर्ण व्यवहार होता है। (3) सामायिक प्रतिमा-इस प्रतिमा का धारक उल्लासपूर्वक सामायिक करता है, देशावकाशिक व्रत का भी पालन करता है और पौषधोपवास व्रत का भी। मास में 6 पौषध करता है-2 अष्टमी, 2 चतुर्दशी, 1 अमावस्या और 1 पूर्णिमा। सामायिक प्रतिमाधारी सद्गृहस्थ की कषायें अत्यन्त मंद हो जाती हैं, दैनिक-व्यावहारिक जीवन में भी वह समत्व भाव रखता है, क्रोध के प्रसंग पर भी क्रोध नहीं करता, समझा-बुझाकर मधुर नीति से काम निकालता है। इस प्रकार उसका नैतिक शुभ का आचरण और भी दृढ़ हो जाता है। (4) पौषध प्रतिमा-इस प्रतिमा में श्रावक प्रतिपूर्ण पौषध व्रत करता है। तथा इस प्रतिमा में गृहस्थ निवृत्ति की ओर अपने चरण बढ़ाता है। जब तक वह इस प्रतिमा का पालन करता है तब तक सभी प्रकार के अशुभ अध्यवसायों से दूर रहता है। मानसिक, वाचिक और कायिक, उसकी सभी प्रकार की क्रियाएँ शुभ ही होती हैं, वह शुभ से शुभतर और परम शुभ की ओर बढ़ता है। यही इसका नीतिशास्त्रीय महत्व है। 1. पंचाणुव्वय धारित्तमणइयारं वएसु पडिबंधो। वयणा तदणइयारा वयपडिमा सुप्पसिद्ध त्ति।। -विंशतिका, 10/5
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy