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________________ 288 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन इसीलिए प्रतिमा को 'प्रतिमा विशेष', व्रत-विशेष', तप-विशेष, साधना पद्धति कहा गया है। नैतिक उन्नति के यह सोपान, वे सोपान है, जहां कोई (रलिंग) सहारा नहीं है। साधक अपनी मानसिक, वाचसिक और शारीरिक क्षमता व दृढ़ता से एक-एक सोपान क्रमशः चढ़ता हुआ, सबसे ऊँचे सोपान पर पहुंचता है, जहां उसे नैतिक चरम का समतल मैदान मिलता है और उस मैदान से परम शुभ-परम शुद्ध (Ultimate good) स्थिति को पहुंच सकता है, जहां नीति की सभी सीमाएं पीछे छूट जाती हैं। इन प्रतिमाओं का आरोहण साधक क्रमशः करता है। यह सोपान अथवा प्रतिमा 11 हैं (1) दर्शन, (2) व्रत (3) सामायिक (4) पौषध (5) नियम (6) ब्रह्मचर्य (7) सचित्तत्याग (8) आरम्भत्याग (9) प्रेष्यपरित्याग अथवा परिग्रहत्याग (10) उद्दिष्टभक्तत्याग (11) श्रमणभूत। (1) दर्शन प्रतिमा-दर्शन का अर्थ है-दृष्टिबिन्दु अथवा दृष्टिकोण। आध्यात्मिक भाषा में इसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। इस प्रतिमा को धारण करने वाले का दृष्टिकोण एकदम यथार्थ अनेकान्तग्राही होता है। वह तत्त्व-अतत्त्व, शुभ-अशुभ, कर्तव्य-अकर्तव्य को भली-भांति जानता है, इनके मर्म को पहचानता है और अनाग्रह बुद्धि से स्वीकार करता है। उसके विवेक चक्षु खुल जाते हैं। विवेक को कुंठित और मलिन करने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों के आवेग-संवेग शिथिल और मंद पड़ जाते हैं। उसकी दृष्टि सम्यक् हो जाती है। वह अनाग्रही तो होता है किन्तु 1. (क) प्रतिमा प्रतिपत्ति : प्रतिज्ञेतियावत -स्थानांगवृत्ति, पत्र 61 (ख) प्रतिमा-प्रतिज्ञा अवग्रहः -वही, पत्र 184 2. (क) दशाश्रुत स्कन्ध छठी दशा (ख) विशिका-10वीं; लेखक हरिभद्रसूरि (ग) दिगम्बर परम्परा में इन प्रतिमाओं के नाम और क्रम कुछ भिन्न हैं(1) दर्शन (2) व्रत (3) सामायिक (4) पौषध (5) सचित्तत्याग (6) रात्रिभुक्तित्याग (7) ब्रह्मचर्य (8) आरम्भत्याग (9) परिग्रहत्याग (10) अनुमतित्याग और (12) उद्दष्टित्याग। -देखें, समन्तभद्र कृत श्रावकाचार, वसुनन्दी श्रावकाचार आदि
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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