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________________ नैतिक उत्कर्ष / 287 समाज में नैतिकता का वातावरण बने, सभी लोग सुखी रहें, परस्पर एक-दूसरे के उपकार में संलग्न रहें, सहयोग की भावना बलवती बने, इसके लिए दान की गंगा का सतत प्रवाहित होना आवश्यक है। दान की एक अन्यतम विशेषता यह है कि यह स्वयं दानदाता के नैतिक जीवन में प्रगति-उन्नति का साधन बनता ही है, साथ ही समाज के अन्य व्यक्तियों को नैतिक बनाने का सबल माध्यम भी है। नैतिक उत्कर्ष के सोपान (श्रावक प्रतिमा) गति दो प्रकार की होती है-(1) सीधी (Horizontal) और (2) ऊँची (Vertical)। दोनों ही प्रगति कहलाती हैं, लेकिन प्रथम से दूसरी में विशेषता यह है कि वह सिर्फ प्रगति ही होती है जब कि दूसरी उन्नति कहलाती है। __ नैतिक विकास पर कदम बढ़ाता हुआ सद्गृहस्थ मिथ्या धारणाओं के अंधकूप में से निकलकर आता है तो उसे सामने व्यसनों का बीहड़ वन दिखाई देता है, अपने आपको व्यसनों के तीखे कांटों वाली झाड़ियों से घिरा हुआ पाता किसी तरह व्यावहारिक नीति की पगडन्डी उसे मिलती है तो उस कंटीली झाड़ियों से बचता-बचाता अपने जीवन को शुद्धि की ओर बढ़ाता हुआ, नैतिक जीवन के सीधे-सपाट राजमार्ग पर आता है और उस पर सावधानी से कदम बढ़ाता है। यह राजमार्ग है, नैतिक उत्कर्ष, गृहस्थ धर्म, एवं गृहस्थ नीति। इस में वह लोक-परलोक दोनों की साधना करता है। आत्मिक शुभ और लौकिक शुभ दोनों को ही दृष्टिगत रखता हुआ, दोनों में समन्वय और ताल-मेल बिठाता हुआ नीति के उत्कर्ष की ओर चरण न्यास करता है। तदुपरान्त उसे मिलते हैं-सोपान-सीढ़ियां। ये वह सीढ़ियाँ हैं, जो नैतिक चरम-साधुचर्या-श्रमणधर्म के राजमन्दिर तक पहुंचाती हैं। इन सीढ़ियों-सोपानों को ही धर्मशास्त्रों में प्रतिमा'-श्रावक प्रतिमा के नाम से कहा गया है। जिस प्रकार सीढ़ियां चढ़ने के लिए कदमों में दृढ़ता की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार प्रतिमाओं के पालन में भी दृढ़ता अति आवश्यक होती है।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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