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________________ 286 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन इस दृष्टिकोण से पौषधोपवास व्रत आत्मिक शुद्धि का साधन तो है ही; साथ ही साथ शुभत्व को-नैतिक आचरण को बुद्धिसंगत भी करता है। शुभत्व से शुद्धत्व-शुभ से परम शुभ की ओर प्रयाण का मार्ग प्रशस्त करता है अतिथि संविभाग व्रत इस व्रत का धार्मिक दृष्टि से महत्व तो है ही; किन्तु नैतिक दृष्टि से अत्यधिक महत्व है। इस व्रत में दान, सेवा सहयोग, परोपकार, विश्वबन्धुत्व आदि सभी शुभ भावों की उर्मियां तरंगायित होती हैं। उस के मानस में स्वोपकार के साथ परोपकार की भव्य भावना भी अंगड़ाई लेने लगती हैं। नीति के अनुसार यह सभी शुभ प्रत्यय हैं और साथ ही संविभाग-संवितरण का समाजोपयोगी व्यावहारिक एवं प्रतिक्रियात्मक रूप भी हैं। दान का अर्थ ही संविभाग है। अपनी न्यायोपार्जित आय में से अतिथि को उसके योग्य उचित आहार आदि देना, उसकी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करना, अपनी संपत्ति का उचित और योग्य क्षेत्र में वपन करना है। दान के दो भेद हैं-(1) श्रद्धावान (2) अनुकंपादान। त्यागी व्रती श्रमण-श्रमणियों को दान देना, श्रद्धादान है तथा समाज के अन्य जरूरतमन्द मानवों को देना, अनुकंपादान है। अनुकंपादान की सीमा बहुत विस्तृत है-पशुओं को चारा तथा पक्षियों को दाना डालना भी अनुकंपादान है। दान (charity) को नीति में शुभ प्रत्यय कहा है। यह व्यक्ति में उदात्त भावनाएं भरता है और लेने वाले के लिए भी उपयोगी होता है। दान, एक ऐसी विधा है, जिसका परिणाम दूरगामी होता है। यह पुण्य तो है ही, साथ ही समाज के प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता पूर्ति का एक सबल माध्यम भी है। जब तक हमारे देश में दान की परम्परा अक्षुण्ण रूप से चलती रही; तब तक संपूर्ण देशवासी भी नैतिक बने रहे, शील और सदाचार तथा नैतिक आचरण में हमारा देश अग्रणी रहा, संसार में हमारे देश का मान सम्मान और गौरव रहा। हमारा देश संसार में सोने की चिड़िया (Golden bird) कहलाता था। दान अथवा स्वेच्छा से अपनी संपत्ति का संविभाग दानदाता के लिए यश, कीर्ति और गौरव बढ़ाता है, साथ ही समाज की नैतिक और चारित्रिक उन्नति भी करता है।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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