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________________ 280 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन इनमें से कुछ व्यवसाय, यथा - असतीजन पोषणता, विष वाणिज्य आदि तो स्पष्ट ही अनैतिक कार्य हैं, किंतु कुछ के विषय में आधुनिक युग की प्रवृत्तियों तथा भौतिक उन्नति के समर्थकों द्वारा विवाद उठाया जा सकता है जैसे - यदि खानें नहीं खोदी जायेंगी तो लोहा, मैंगजीन, अभ्रक आदि पदार्थ कैसे प्राप्त होंगे और यदि ये नहीं प्राप्त होंगे तो देश औद्यौगिक उन्नति तथा आर्थिक प्रगति में पिछड़ जायेगा । इसी प्रकार यदि वन नहीं काटे जायेंगे तो बढ़ती हुई आबादी के लिए मकान कहाँ बनेंगे, उनके निवास की व्यवस्था कैसे होगी, उद्योग - कारखाने आदि कहाँ स्थापित किये जायेंगे आदि । यहां यह बात विशेष रूप से ध्यान रखने की है कि धर्म और नीति लौकिक प्रगति में बाधक नहीं, विशेष रूप से नीति तो संसार - व्यवहार और सांसारिक उन्नति में कभी रोड़ा नहीं अटकाती । यहां निषिद्धता से अभिप्राय यह है कि क्रूरतापूर्ण भावों से (हृदय में हिंसक, अनैतिक भाव रखकर ) ऐसे व्यवसाय न किये जाने चाहिए । लेकिन जो व्यवसाय पूर्णतया अनैतिक हैं, समाज में अव्यवस्था के कारण बनते हैं, संघर्ष उत्पन्न होते हैं, जिनसे मानसिक, शारीरिक, नैतिक सभी प्रकार की हानि होती है, राष्ट्रीय क्षति होती है, उन व्यवसायों का तो पूर्ण रूप से त्याग कर ही देना चाहिए । धर्मशास्त्रों में इस व्रत (उपभोग - परिमाणव्रत) के पाँच अतिचार बताये हैं - (1) सचित्ताहार ( 2 ) सचित्तप्रतिबद्धाहार ( 3 ) अपक्वाहार (4) दुष्पक्वाहार (5) तुच्छौषधिभक्षण।' इनमें से नीति का संबंध अपक्वाहार, दुष्पक्वाहार और तुच्छौषधिभक्षण से है। क्योंकि सही ढंग से न पका हुआ, अधिक पका हुआ आहार स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । और यह निश्चित है कि स्वस्थ व्यक्ति ही धर्म का - नीति का सही ढंग से आचरण कर सकता है। रोगी व्यक्ति तो जीवन - व्यवहार और धर्म-साधना दोनों में ही अक्षम हो जाता है । 1. सचित्ताहारे, सचित्तपडिबद्धाहारे, अप्पोलिओसहिभक्खणया, दुप्पोलिओसहिभक्खणया. तुच्छ सहिभक्खया । -उपासकदशा
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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