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नैतिक उत्कर्ष / 281
स्वामी समन्तभद्र का मत इस स्थान पर उल्लेखनीय है । उन्होंने इस व्रत के पाँच अतिचार' इस प्रकार बताये हैं
(1) विषयरूपी विष के प्रति आदर रखना ।
(2) पूर्वकाल में भोगे गये भोगों - भोग्य पदार्थों का स्मरण करना । (3) वर्तमान काल के भोग्य पदार्थों के प्रति अत्यधिक लोलुपता रखना । (4) भविष्य के भोगों की अत्यधिक लालसा रखना ।
( 5 ) भोग्य विषय तथा पदार्थ न होने पर भी मन ही मन उनके भोगों का अनुभव करते रहना यानी मानसिक भोग करना ।
यह पाँचों अतिचार धर्म से संबंधित तो हैं ही, नीति से इनका सीधा संबंध है। यह पाँचों उपभोग-परिभोग की मानसिक अवस्थाओं को प्रगट करते हैं, जो मानसिक अनैतिकताएँ हैं । इनसे व्यक्ति का मन और मस्तिष्क विकारी बनता है । इन मानसिक विकारों का दुष्प्रभाव व्यक्ति के स्वयं के स्वास्थ्य और जीवन पर गहरा पड़ता है ।
अनर्थदण्ड विरमणव्रत
'अर्थ' का अभिप्राय है, स्वयं के अथवा परिवारीजनों के लिए अनिवार्य प्रयोजनभूत प्रवृत्ति और अनर्थ का अभिप्राय है अनिवार्य प्रवृत्तियों के अतिरिक्त अन्य प्रवृत्तियाँ-हिंसादि रूप कार्य, जिनको न करने से भी जीवन निर्वाह में कोई बाधा नहीं आती ।
आचार्य उमास्वाति ने कहा है - जिससे उपभोग- परिभोग होता है श्रावक के लिए वह अर्थ है और इनके अतिरिक्त सब अनर्थ प्रवृत्ति है | 2
ति के दृष्टिकोण से अनर्थ अथवा अशुभ प्रवृत्तियाँ सर्वथा अनुचित और त्याज्य हैं । व्यक्ति को शुभ का आचरण ही करना चाहिए ।
धर्मशास्त्रों में इसके चार प्रकार बताये हैं
(1) अपध्यानाचरित - अपध्यान का अभिप्राय है - कुविचार | मन में बुरे (Evil) विचार करते रहना। इसमें ऐसी असंभव कल्पनाओं का भी समावेश होता
1. (क) विषयविषतोऽनुपेक्षाऽनुस्मृतिरतिलोल्यमतितृषाऽनुभवो ।
भोगोपभोगपरिमाणव्यतिक्रमाः पंच कथ्यन्ते ॥ - रत्नकरंड श्रावकाचार, श्लोक 90
(ख) Dayanand Bhargava : Jaina Ethics. p. 132
(ग) K.C. Sogani : Ethical Doctrines in Jainism, p. 100
2. उपभोग - परिभोगौ अस्याऽअगारिणोऽर्थः तद्व्यतिरिकऽनर्थः । - तत्वार्थभाष्य, 7/16