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278 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
फिर भी वह पाँच बातों की सावधानी रखता है
(1) वह ऐसी वस्तुओं का उपभोग नहीं करता जिनमें त्रस जीवों का वध हो, जैसे रेशमी वस्त्र, काडलिवर आइल आदि।
(2) बहुवध-जिन वस्तओं में बहुत-से स्थावरकाय जीवों की हिंसा होती है, जैसे-अनन्तकाय पिंड, जमीकन्द आदि।
(3) प्रमादबहुल-प्रमाद अथवा आलस्य बढ़ाने वाला तामसिक भोजन सद्विवेकी व्यक्ति को नहीं खाना चाहिए, साथ ही अधिक मात्रा में विगई (विकृत्ति) का सेवन भी उचित नहीं है।
इसी में उत्तेजक तथा नशीले पदार्थों की भी गणना कर ली जाती है, जैसे-अफीम, हैरोइन आदि।
(4) जो वस्तुएँ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हों, ऐसी अनिष्ट वस्तुओं का सेवन भी त्याज्य समझा जाना चाहिए।
(5) जो शिष्टजनसम्मत वस्तुएँ न हों, उनका सेवन भी न करें।
यहां एक बात विचारणीय है कि इन उपभोग-परिभोग की वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए किसी न किसी प्रकार का व्यवसाय करना अति आवश्यक
है।
इस दृष्टिकोण से उपभोग-परिभोग परिणाम व्रत के दो रूप हैं(1) उपभोग-परिभोग संबंधी और (2) आजीविका के साधन सम्बन्धी।
आजीविका के अनेक साधन हो सकते हैं। प्राचीनकाल में तो कई प्रकार के साधन थे ही; किन्तु आधुनिक युग में तो नए-नए साधन खुलते जा रहे हैं। इनकी गणना भी सम्भव नहीं है।
किन्तु नीतिवान व्यक्ति को आजीविका के वे ही साधन अपनाने चाहिए जो नैतिक हों, नीतिपूर्ण हों और जिनको करने में धार्मिक और नैतिक दृटि से किसी भी प्रकार की अनुचितता न हो।
इस दृष्टिकोण से शास्त्रों में कुछ ऐसे व्यवसाय बताये गये हैं, जिनको करना उचित नहीं है, ये निषिद्ध व्यवसाय हैं। निषिद्ध व्यवसाय
निषिद्ध व्यवसाय का अभिप्राय है, ऐसे व्यवसाय जिनमें हिंसा अधिक हो, प्राणियों को अधिक कष्ट हो, सामाजिक शांति और सुव्यवस्था में बाधक बनें, असामाजिकता अथवा समाज विघटनकारी प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिले।