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________________ नैतिक उत्कर्ष / 277 इनमें से अन्तिम तीसरा कारण तो नैतिक है, आध्यात्मिक उन्नतिकारक होने से धर्मानुमोदित है। इनके लिए गमन की मर्यादा निश्चित करने की कोई आवश्यकता नहीं। किन्तु प्रथम दो कारण दुर्नैतिक और अनैतिक हैं। क्योंकि लोभ अनीति का जनक है और वैषयिक सुखों के लिए गमन भी नीति के विरुद्ध है। नीतिवान सद्गृहस्थ को ऐसी कोई भी गतिविधि नहीं करनी चाहिए जिससे अनैतिकता की तनिक भी संभावना हो। आधुनिक युग में एड्स, कैंसर आदि घातक रोग, काम-भोग की बढ़ती हुई तीव्रता, देश का धन विदेशों में जाना आदि जो व्यक्तिगत, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के लिए अहितकर और अनैतिक प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं, वह सब निर्बाध गमनागमन का परिणाम ही है। सांस्कृतिक, साहित्यिक और राजनीतिक सम्पर्कों की आड़ में देश के रहस्य, विदेशियों के हाथ में किस प्रकार पहँच रहे हैं यह किसी से छिपा नहीं रह गया है। इस भ्रष्टाचार और देशघाती प्रवृत्तियों को रोकने में दिशापरिमाणव्रत बहुत सीमा तक सहायक हो सकता है। उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत __नैतिक जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वह अपने उपभोग-परिभोग की वस्तुओं का परिसीमन करे। __उपभोग का अभिप्राय है-एक बार काम में आने वाली वस्तुएँ, यथा-जल, आहार, फल आदि। और परिभोग वे वस्तुएँ हैं जिनका बार-बार उपयोग किया जाना संभव है, यथा-बर्तन, पहनने-ओढ़ने के वस्त्र, शय्या, मकान आदि। इन दोनों प्रकार की वस्तुओं की मर्यादा करने से व्यक्ति के नैतिक जीवन में काफी सहायता मिलती है। ऐसी उपभोग-परिभोग की वस्तुएँ संख्या में कितनी ही हो सकती है; प्राचीन सूत्रों में छब्बीस वस्तुओं की सूची दी गई है। ___ उपभोग-परिभोग योग्य वस्तुओं की यथाशक्ति और यथापरिस्थिति विवेकी व्यक्ति मर्यादा निश्चित करता है, यह सत्य है कि उसके लिए इन वस्तुओं का मर्यादित रूप में ही सही, उपयोग करना आवश्यक सा है, क्योंकि इनके बिना उसका जीवन नहीं चल पाता।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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