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276 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
परिग्रह की अधिक लालसा, संग्रह-संचय आदि का अवश्यंभावी परिणाम समाज में ईर्ष्या, द्वेष, विग्रह, वर्गसंघर्ष का प्रसार-प्रचार है । और यह सभी प्रवृतियाँ अनैतिकता की जननी हैं । परिग्रह की लालसा और वस्तुओं का संचय -संग्रह स्वयं व्यक्ति को भी अनैतिकता के फिसलन भरे ढालू मार्ग की ओर प्रेरित करता है तथा ऐसे वातावरण का निर्माण होता है कि समाज के अन्य व्यक्ति भी अनैतिकता की ओर लालायित होते हैं, अनैतिक आचरण करते हैं ।
गुणव्रत
गुणव्रत, अणुव्रतों के गुणों को बढ़ाते हैं, उनकी रक्षा और विकास करते हैं; उनमें चमक-दमक पैदा करते हैं । इसीलिए इनका गुण - निष्पन्न नाम गुणवत है ।
गुणव्रत जीवन की बाह्य ( साथ ही आन्तरिक भी) गतिविधियों, क्रिया-कलापों को अनुशासित करते हैं ।'
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गुणव्रत, अणुव्रतरूपी दुर्ग की रक्षा - प्राचीर के समान हैं । ये हिंसा आदि अनैतिकताओं के मार्गों को अवरुद्ध करने में काफी सीमा तक सहायक बनते हैं। इनको अपनाने से नैतिक जीवन निखरता है ।
गुणव्रत तीन हैं - ( 1 ) दिशापरिमाणव्रत, ( 1 ) उपभोग- परिभोग परिमाणव्रत और (3) अनर्थदण्डविरमणव्रत ।
दिशापरिमाणव्रत
इनमें व्यक्ति दशों दिशाओं में गमनागमन की सीमा निश्चित कर लेता है कि उत्तर, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, ऊर्ध्व, आदि दशों दिशाओं में अमुक दूरी तक ही जाऊँगा ।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज ने गमन के तीन कारण बताये हैं(1) अधिकाधिक लोभ के वशीभूत होकर व्यापार की अभिवृद्धि के लिए, (2) आमोद-प्रमोद, सैर-सपाटे, और वैषयिक सुखों के आस्वादन के लिए,
और
(3) किसी आध्यात्मिक पुरुष के दर्शन के लिए।
1. Gunavratas discipline the external movements Bhargava : Jaina Ethics, p. 102
2. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी : श्रावकधर्मदर्शन, पृ. 390