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नैतिक उत्कर्ष / 275
दृष्टियों से ही इस व्रत का महत्व बढ़ गया है क्योंकि संतोषी मानव ही नैतिक जीवन में गति-प्रगति कर सेता है।
धर्मशास्त्रों में परिग्रह नौ प्रकार का बताया गया है(1) क्षेत्र-खुली भूमि, खेत, बाग, खान आदि (open land) (2) वास्तु (covered area)-मकान, दुकान, बंगला, कारखाना आदि (3) हिरण्य-चांदी के बर्तन, आभूषण आदि
(4) सुवर्ण-सोने के आभूषण, बर्तन, ज्वेलरी तथा अन्य फैन्सी वस्तुएँ आदि
(5) धन-रुपये, पैसे, नोट, ड्राफ्ट तथा बैंक बैंलेस आदि (6) धान्य-अन्न, गेहूँ, चावल आदि (7) द्विपद-दो पांव वाले प्राणी-दास-दासी, कबूतर पक्षी आदि (8) चतुष्पद-चार पैरों वाले प्राणी-घोड़ा, कुत्ता, गाय आदि
(9) कुप्य-घर का अन्य सामान, यथा-वस्त्र, सोफासेट, स्टील आदि के बर्तन, मेज कुर्सी आदि। इन्हीं में मोटर साइकिल, स्कूटर, कार, मोपेड आदि भी सम्मिलित हैं।
इन वस्तुओं में ही आधुनिक युग में बहु-प्रचलित टी. वी., वी. सी. आर. आदि भी समझ लेने चाहिए।
गांधीजी ने परिग्रह परिमाण के लिए न्यास सिद्धान्त (Trusteeship) का प्रतिपादन किया। इसका अभिप्राय है-व्यक्ति परिग्रह तो रखे, किन्तु उस पर अपना स्वामित्वभाव (Ownership) न रखे।'
स्वयं गांधीजी अनिवार्य आवश्यक वस्तुओं तक ही सीमित रहते थे और इसी का वे प्रचार करते थे। इच्छा-सीमन और स्वामित्वभाव का त्याग, इनके अपरिग्रह व्रत की धुरी थे।
यही सिद्धान्त परिग्रह के लिए जैनशास्त्र का है। वह भी मूर्छा को परिग्रह मानता है। मूर्छा का अभिप्राय है-तीव्र ममत्वभाव, अपनापन, स्वामित्वभाव। 1. (क) D.N. Bhargava : Jaina Ethics, p.122-24
(ख) K.C. Sogani : Ethical Doctrines in Jainism, p.82-87. 2. सर्वोदय-दर्शन, पृ. 281-282 3. मुच्छा परिग्गहो वुत्तो" -दशवैकालिक, 6/21