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________________ 274 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन (5) काम - भोग तीव्रभिलाषा - कामेच्छा की तीव्रता मानव को अनैतिकता की ओर प्रवृत्त कर सकती है । यदि शारीरिक रूप से वह समाज तथा परिवार भय से, लोक लज्जा से अनैतिक आचरण न करे, तब भी उसका मन-मस्तिष्क तो दूषित होगा ही, उसमें नीतिविरोधी विचारों का बबंडर तो उठेगा ही । अतः काम-भोग की तीव्र अभिलाषा भी अनैतिक ही है । संक्षेप में, धर्मशास्त्रीय दृष्टि से कहे गये यह पांचों अतिचार' नीति शास्त्रीय दृष्टिकोण से भी अनुचित एवं अनैतिक माने जायेंगे । स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत इस व्रत का मूल अभिप्राय है - इच्छाओं पर अंकुश लगाना, उन्हें यथाशक्ति और यथासंभव कम करना, संतोषवृत्ति धारण करना । इच्छाओं के विषय में कहा गया है कि ये अनन्त हैं, आकाश के समान असीमित' हैं, इन असीमित इच्छाओं को सीमित करना ही इस व्रत का अभिप्रेत है, लक्ष्य है, उद्देश्य है । क्योंकि इच्छा कभी भी तृप्त नही होती, एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी इस प्रकार गुणात्मक (Harmonical progression) ढंग से बढ़ती चली जाती है । यही कारण है कि इच्छा तृप्ति में सुख नहीं है, सुख है इच्छा की निवृत्ति में । नैतिक दृष्टिकोण भी यही है । यद्यपि इच्छा नीति का एक प्रत्यय है किन्तु वहां 'इच्छा' से अभिप्राय उस इच्छा से है जो स्वयं अपने और दूसरे के लिए हितकर हो, किसी को दुःखी करने वाली न हों इस प्रकार 'नैतिक इच्छा' (good will) में 'संतोष' का भाव निहित है । और दुःखदायी तथा असीमित इच्छा को वहां भी अनैतिक प्रत्यय (Evil concept) कहा गया है। 1 आज के युग में मन को लुभाने वाले, नई-नई इच्छाओं को उत्तेजित करने वाले अनेक साधन विज्ञान प्रस्तुत कर रहा है। अतः धार्मिक और नैतिक दोनों 1. (क) उपासकदशा, 1/6 अभयदेववृत्ति पृ. 13 (ख) D.N. Bhargava : Jaina Ethics, p. 122 (ग) K.C. Sogani : Ethical Doctrines in Jainsim, p. 85 (घ) द्रष्टव्य - श्री देवेन्द्र मुनि ; जैन आचार, पृ. 312-316 2. उत्तराध्ययन सूत्र, 9 / 48 - इच्छा हु आगास समा अणंतिया ।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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