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272 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
इसका दूसरा अभिप्राय यह भी है कि अपनी अल्प वयस्का पत्नी (जिसकी आयु भोग के योग्य न हो, बाल्यावस्था अथवा किशोरवस्था ही हो) के साथ गमन करना। यह कथन बाल-विवाह की अपेक्षा से है।
तीसरा अभिप्राय यह है कि स्वयं अपनी ही पत्नी किसी कारण से भोग योग्य न हो, उसके साथ भी गमन (भोग) करना। भोग की अयोग्यता के अनेक शारीरिक कारण हो सकते हैं।
नीति की अपेक्षा इस अतिचार के तीनों रूप महत्वपूर्ण हैं। नीति की ओर पहला कदम रखते ही सदाचारी गृहस्थ रखैल आदि का तो त्याग कर ही देता है, तब वह ऐसी स्त्री से सम्बन्ध कैसे स्थापित कर सकता है जो शिथिल चरित्र वाली हो? __बाल-विवाह किसी युग में होते थे लेकिन उस युग में भी वे नैतिक दृष्टि से उचित नहीं माने जाते थे और आज के युग में इन्हें अनैतिक कहा ही जाता है। फिर यह कानूनन अपराध भी है, क्योंकि 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की का विवाह कानून द्वारा वर्जित है। ऐसा दण्डनीय अपराध नीतिवान गृहस्थ कैसे कर सकता है?
तीसरा रूप पत्नी भोग योग्य न हो फिर भी उसके साथ भोग करना स्वयं अपने लिए बीमारियों को निमन्त्रण देना है और जीवन-साथी के जीवन के साथ खिलवाड़ करना है। यह तो बलात्कार की परिधि में गिना जाना चाहिए, जो अनैतिक आचरण है। ___आज के युग में जो अनेक यौन-रोग फैल रहे हैं, उन सब का मूल कारण मानव की बढ़ती हुई घोर ऐन्द्रियपरकता और काम-सुख की अदम्य लालसा है।
इसलिए इन तीनों रूपों में से किसी भी प्रकार का दोष सद्गृहस्थ अपने जीवन में नहीं लगाता।
(2) अपरिग्रहीतागमन-इसका धर्मशास्त्रीय अभिप्राय है-वेश्याओं, कुमारिकाओं, विधवाओं आदि जिनका कोई एक स्वामी न हो उनके साथ सम्बन्ध स्थापित करना।
किन्तु नीतिशास्त्र की विचारणा इस विषय में व्यापक है। नैतिक व्यक्ति नीति के पथ पर प्रथम कदम रखते ही वेश्या तथा अन्य सभी स्त्रियों का त्याग कर देता है। सप्तव्यसन त्याग में ही वह वेश्यागमन तथा परदारारमण का त्याग कर देता है और अपनी विवाहित धर्मपत्नी (भोगपत्नी अथवा उपपत्नी नहीं) के अतिरिक्त संसार की सभी स्त्रियों को पर-दारा-माता-बहन के समान मान लेता है।