SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 268 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन देना, अथवा वर-पक्ष की ओर से दहेज के लिए कन्या पक्ष को विवश करना-इन सबका परिणाम प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। गौ-पशु जाति-उपलक्षण से यहां वाहन-कार, स्कूटर ऐरोप्लेन; पनडुब्बी आदि सभी यातायात के साधनों को समझना चाहिए। इनके संबध में झूठ बोलने का कितना भयंकर दुष्परिणाम होता है तथा व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के लिए कितना घातक होता है आदि बातें आज किसी से छिपी नहीं रही हैं। भूमि (खेत या प्रापर्टी) तथा भूमि से प्राप्त होने वाली वस्तुओं के विषय में झूठ का भी भंयकर परिणाम होता है। भूमि-जमीन तो लोक में झगड़े की जड़ कही जाती है। इसके लिए कितनी हिंसाएँ-हत्याएँ होती हैं, परिवार उजड़ जाते हैं, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। इसी प्रकार झूठी गवाही देना और किसी की धरोहर को दबाने के लिए झूठ बोलना भी व्यक्ति के साथ ही सामाजिक संघर्ष व विग्रह का कारण बनती है। नीतिशास्त्रीय मर्यादा के अनुसार यह सभी घोर अशुभ प्रत्यय हैं। इनका आचरण करने वाले व्यक्ति की गणना अनैतिक व्यक्तियों में की जाती है। यह सब दुर्नीतियाँ हैं और इनके परिणाम सामाजिक, पारिवारिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय सभी रूपों में अति घृणित होते हैं। सत्याणुव्रत के पांच अतिचार कहे गये हैं, वे भी अनैतिक आचरण को ही द्योतित करते हैं। वे पांच अतिचार' हैं (1) सहसाभ्याख्यान-सत्यासत्य का निर्णय किये बिना किसी पर झूठा दोष लगा देना, किसी के प्रति गलत धारणा पैदा कर देना। (2) रहस्याभ्याख्यान-किसी की गुप्त बात को प्रकट कर देना, गोपनीयता भंग कर देना, गुप्त (Secret) दस्तावेजों को दुर्भावना से प्रकट कर देना। (3) स्वदारमंत्रभेद-पति-पत्नी की पारस्परिक गुप्त बातों को प्रगट कर देना। (4) मिथ्योपदेश-मिथ्या-झूठा उपदेश देना, गलत दिशा में मार्ग-दर्शन करना। ऐसा दो दशाओं में हो सकता है-(1) अनजान में और 1. (क) (1) सहस्साब्भक्खाणे (2) रहस्साब्भक्खाणे, (3) संदारमंतभेए, (4) मोसुवएसे, (5) कूडलेहकरणे। -उपासकदशा, अभदेयवृत्ति, पृष्ठ 11 (ख) D.N. Bhargava : Jaina Ethics, p 118. (TT) K.C. Sogani : Ethical Doctrines in Jainism, p.83.
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy