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266 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
नैतिकता की दृष्टि से यह सभी दोष असामाजिक हैं, जनता के सामान्य जीवन में गतिरोध उत्पन्न करते हैं, उनमें विरोधी भावना भरते हैं और अनैतिक वातावरण के निर्माण की भूमिका प्रस्तुत करते हैं।
सत्याणुव्रत
सत्य सर्व प्रतिष्ठित तत्व है। धार्मिक जन और सभी धर्म इसे परमधर्म तथा भगवान का रूप बताते हैं, यहाँ तक कि दुष्टाचारी, मांसाहारी, अनैतिक कार्य करने वाले भी सत्य का महत्व स्वीकारते हैं, वे चाहें स्वयं सत्य न बोलें, किन्तु चाहते यही हैं कि अन्य सभी व्यक्ति सत्य का आचरण करें और बोलें, मिथ्या अथवा झूठ न कहें।
जैन आगमों में तो सत्य को भगवान' कहा है। गणधर सुधर्मा स्वामी के शब्दों में सच्चं खु अणवज्जं वयंति-सत्य तथा अपापकारी (किसी के हृदय को न दखाने वाला) वचन बोलना चाहिए। गांधी जी भी इस बात को इन शब्दों में कहते हैं-सत्य और अहिंसा में अभेद है, ये दोनों एक दूसरे से इतने घुले-मिले हैं कि अलग-अलग करना कठिन है।
आचार्य उमास्वाति ने असद् अभिधान को अनृत (मिथ्या) कहा है। असद् अभिधान के तीन रूप है(1) असत्-जो बात नहीं है, उसको कहहना। (2) जैसी बात है वैसी न कहकर दूसरे रूप में कहना। (3) बुराई या दुर्भावना से किसी बात को कहना।
दुर्भावना दो प्रकार की हो सकती है-(1) अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए असत्य बोलना और (2) दूसरे को हानि पहुंचाने के लिए असत्य बोलना अथवा सत्य को विकृतरूप में प्रगट करना।
गृहस्थ स्थूल असत्य से बचता है। स्थूल असत्य का प्रयोग वह स्वयं मन, वचन, काया से नहीं करता और न दूसरे से करवाता है। यानी वह न स्वयं झूठ बोलता और न किसी दूसरे से झूठ बुलवाता है।
1. सच्चं खु भगवं -प्रश्नव्याकरण सूत्र 2. उद्धृत-जैनाचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृष्ठ 301 3. सर्वोदयदर्शन, पृ. 277 4. असदभिधानं अनृतम्।
-तत्वार्थ सूत्र