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264 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
और आरंभी हिंसा गृह व्यवस्था, भोजन बनाना आदि सभी कार्यों में अनिवार्य रूप से हो जाने वाली हिंसा को कहा गया है।
संकल्पजा हिंसा का अभिप्राय है-जान-बूझकर, मारने के इरादे से किसी भी प्राणी का वध करना। हिंसा की नीयत से वध करना संकल्पजा हिंसा है।
उदाहरण के लिए शिकारी किसी वन्य पशु, यथा-हिरण को मारने के लिए बन्दूक से गोली चलाता है, किन्तु उसका निशाना चूक जाता है और हिरन भाग जाता है, वह हिरन का वध नहीं कर पाता; फिर भी शिकारी की यह हिंसा संकल्पी हिंसा है क्योंकि उसने मारने के इरादे से संकल्पपूर्वक गोली चलाई थी।
इसके विपरीत एक डाक्टर किसी रोगी का ऑपरेशन करता है और ऑपरेशन के दौरान ही रोगी की मृत्यु हो जाती है, फिर भी डाक्टर हिंसक (हत्यारा) नहीं कहलाता, क्योंकि उसकी भावना रोगी का रोग मिटाने की-स्वस्थ करने की है।
संकल्पी हिंसा का त्याग करने वाला नैतिक व्यक्ति किसी भी जीव की निष्प्रयोजन हिंसा नहीं करता, इसका वह जीवन भर के लिए त्याग कर देता
है।
यद्यपि वह सदैव सजग और अपने व्रत के प्रति जागरूक रहता है, फिर भी कभी परिस्थितिवश, कभी प्रमाद-असावधानी से और कभी कषायों के तीव्र आवेग में उससे कुछ भूलें हो सकती हैं, व्रत में दोष लग सकते हैं। ऐसे दोष 5 बताये गये हैं
(1) वध-अपने आश्रित किसी प्राणी को लकड़ी, चाबुक, लात अथवा घूसों (मुष्टिका प्रहार) से मारना।
(2) बंध-अपने आश्रित किसी भी व्यक्ति अथवा प्राणी को रस्सी, जंजीर आदि से कठोर बंधन में बाँधना।
(3) छविच्छेद-किसी भी प्राणी का अंगोपांग काट देना।
(4) अतिभारारोपण-बैल, घोड़ा आदि पशुओं पर उनकी क्षमता (भार वहन की क्षमता) से अधिक बोझा लाद देना।
1. निरर्थिकां न कुर्वीत जीवेषु स्थावरेष्वपि।
हिंसामहिंसाधर्मज्ञः कांक्षन् मोक्षमुपासकः ॥ -योगशास्त्र, 2/21 2. (क) उपासकदशांग, 1/6 अभयदेववृत्ति
(ख) D. N. Bhargava : Jaina Ethics, p. 113.