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नैतिक उत्कर्ष / 263
आचार-विचार में छलना-प्रवंचना न करे। ऐसा नहीं होना चाहिए कि उसका बाह्य रूप-लोक दिखावे का रूप कुछ और हो तथा आन्तरिक रूप कुछ दूसरे ही प्रकार का हो। हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और, यह प्रवृत्ति नैतिक एवं धार्मिक सभी दृष्टिकोणों से निन्दनीय और गर्हणीय है। ऐसी प्रवृत्ति की अपेक्षा किसी भी धार्मिक तथा नैतिक व्यक्ति से नहीं की जा सकती।
अब इस नैतिक आचार-विचार के परिप्रेक्ष्य में श्रावक व्रतों और उनके अतिचारों का विवेचन करेंगे।
अणुव्रत ___ जैसा कि इसी अध्याय में बताया जा चुका है कि श्रावक व्रतों में सर्वप्रथम, सर्वप्रमुख और श्रावक जीवन के आधारभूत पांच अणुव्रत हैं-(1) अहिंसाणुव्रत (2) सत्याणुव्रत (3) अस्तेयाणुव्रत (4) अचौर्याणुव्रत और (5) अपरिग्रहाणुव्रत। अहिंसाणुव्रत
यद्यपि सभी धर्मों-दर्शनों में अहिंसा का गौरवपूर्ण स्थान है। इसे परधर्म बताया गया है। अहिंसक व्यक्ति को नैतिक कहा गया है। किन्तु जैन-धर्म-दर्शन का तो प्राण ही अहिंसा है। जैन-आचार-विचार-नीति आदि सभी कुछ अहिंसा पर आधारित हैं।
इन्हीं सब कारणों से जैन शास्त्रों में अहिंसा का विशद्, तलस्पर्शी, गहन, गम्भीर और सर्वांगपूर्ण विवेचन हुआ है।
जैन आगमों में हिंसा के दो प्रमुख भेद बताये गये हैं-(1) संकल्पजा हिंसा और (2) आरम्भजा हिंसा। इनमें से गृहस्थ साधक संकल्पजा हिंसा का त्यागी होता है।
बाद के व्याख्याकारों ने हिंसा के चार भेद कर दिये हैं-(1) संकल्पी हिंसा (2) विरोधी हिंसा (3) उद्यमी हिंसा (4) आरंभजा हिंसा। किन्तु विरोधी, उद्यमी
और आरंभी-यह तीनों ही आरंभजा हिंसा के उत्तर भेद हैं। विरोधी हिंसा का अभिप्राय है-अपराधी व्यक्ति को दण्ड देना, उसके साथ संघर्ष करना; उद्यमी हिंसा-उद्यम, उद्योग, आजीविका के साधनों के उपार्जन में होने वाली हिंसा है 1. से पाणाइवाइए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-संकप्पओ य आरम्भओ य।
-उपासकदशांग, 1