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नैतिक उत्कर्ष / 261
फिर मानव, भूल का पात्र भी है ।' जब तक वह नैतिकता की सर्वोच्च श्रेणी तक नहीं पहुँच पाता तब तक उससे जाने-अनजाने भूलें हो भी जाती हैं। मानव की इस दृष्टि से व्रत - नियमों के अतिक्रमण' की चार कोटियाँ बताई हैं।
(1) अतिक्रम - नैतिक आचरण के उल्लंघन का मन में विचार या कल्पना उत्पन्न होना ।
(2) व्यतिक्रम - ग्रहण किये हुए नियम की मर्यादा का उल्लंघन करने के लिए क्रियाशील होनो ।
(3) अतिचार - नियम का आंशिक रूप से अतिक्रमण हो जाना ।
( 4 ) अनाचार - नियम को भंग कर देना ।
इनमें से अनाचार तो स्पष्ट रूप से अनैतिकता है ही । नीतिवान पुरुष के जीवन में इसका कोई स्थान नहीं होता, क्योंकि अनाचार को पूर्णतया त्यागकर ही तो वह नीति के पथ पर बढ़ता है ।
अतिक्रम और व्यतिक्रम, यद्यपि अनैतिक तो हैं, किन्तु यह विशेष रूप से मानव के व्यक्तिगत जीवन से ही सम्बन्धित हैं । इनका पारिवारिक, सामाजिक प्रभाव नगण्य होता है। और इनके बाद मानव स्वयं ही सँभल भी जाता है, विवेक बुद्धि सजग होते ही वह स्वयं ही नैतिक पथ पर पुनः स्थिर हो जाता है । अतिचार, ऐसा दोष है जिसका व्यक्ति के स्वयं के जीवन पर तो प्रभाव पड़ता ही है, साथ ही अन्य व्यक्तियों पर, समाज पर, परिवार पर भी इसका प्रभाव पड़ता है ।
यही कारण है कि जैनाचार्यों ने श्रावक के प्रत्येक व्रत के साथ अतिचार गिनाये हैं और उनसे बचने की प्रेरणा दी है । कहा है- यह अतिचार जानने चाहिए, किन्तु आचरण करने योग्य नहीं हैं।
नीतिकार और आचारशास्त्री सभी इस बात पर एकमत हैं कि मानव को दोषरहित जीवन व्यतीत करना चाहिए - नैतिक दृष्टि से भी और धार्मिक दृष्टि भी ।
To err is humane.
2. अतिक्रमण का अभिप्राय, नीतिशास्त्र के सन्दर्भ में स्वीकृत व्रतों-नियमों तथा नैतिक आचरण से विचलित हो जाना अथवा आचरण में मलिनता का प्रवेश हो जाना है । 3. अइयारा जाणियव्वा समायरियव्वा ।
- प्रतिक्रमण सूत्र