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नैतिक उत्कर्ष / 259
3. शिक्षाव्रत चार हैं-(1) सामायिक व्रत (2) देशावकाशिक व्रत (3) पौषधोपवास व्रत और (4) अतिथि संविभाग व्रत।
जैन शास्त्रों में इन व्रतों को ग्रहण करना तथा इनकी साधना करना गृहीधर्म कहा गया है। गृहस्थ इन व्रतों का पालन करता भी है, किन्तु साधक को व्रत ग्रहण करने से पहले अपनी शक्ति, सामर्थ्य आदि की अच्छी तरह परख कर लेनी चाहिए, जैसा कि दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है
अपना मनोबल, शारीरिक (इन्द्रियों की) शक्ति, पराक्रम, स्वास्थ्य, श्रद्धा, आरोग्य (रोगरहितता) क्षेत्र, (स्थान) और काल को भली भाँति जानकर ही किसी सद्कार्य में स्वयं को नियोजित करना चाहिए।
व्रत ग्रहण करने वाले नैतिक सद्गृहस्थ के लिए आवश्यक है कि वह अपने स्वीकृत यम-नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन करे। आत्मवंचना आदि दोष इस स्थिति में बिल्कुल भी अपेक्षित नहीं है। सरलता और दृढ़ता ही अति आवश्यक है। 1. गांधीजी ने भी सदाचारी नैतिक गृहस्थ के लिए 11 व्रतों का विधान किया है
अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य संग्रह। शरीरश्रम अस्वाद सर्वत्र भयवर्जन ॥ सर्वधर्मी समानत्व स्वदेशी समभावना। ही एकादशे सेवावी नम्रत्वे व्रत निश्चये ॥ (1) अहिंसा (2) सत्य (3) अचौर्य (4) ब्रह्मचर्य (5) अपरिग्रह (अधिक संग्रह नहीं करना) (6) शरीर श्रम (7) अस्वाद (रसनाइन्द्रिय का संयम) (8) भयवर्जन (न स्वयं भयभीत होना और न अन्य को भयभीत करना) विशेष-प्रश्न व्याकरण 2/2 और उत्तराध्ययन 6/2 में भी कहा गया है कि भयभीत साधक साधना से विचलित हो जाता है, वह अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर सकता। भय से उपरत साधक ही अहिंसा (अन्य सभी स्वीकृत व्रतों का भी) पालन कर सकता है। अतः जैन विचारणा के अनुसार अभयव्रत-साधना का प्राण है। (9) सर्वधर्मसमभाव (10) स्वदेशी (अपने देश में निर्मित वस्तुओं का उपयोग करना) (11) समभावना (मानव को समान समझना-छूआछूत- स्पास्पर्क्ष्य की भावना न रखना) विशेष-इनमें से प्रथम पाँच व्रत तो जैन धर्मानुमोदित पंच अणुव्रत ही हैं। शरीरश्रम, अस्वाद, भयवर्जन आदि भी जैन धर्मानुकूल हैं। स्वदेशी व्रत राष्ट्रीय भावना को प्रगट करता है, जो मार्गानुसारी के 35 गुणों में से चौदहवें गुण में समाविष्ट हो जाता है। 2. बलं थामं च पेहाए, सद्धामारोग्गप्पणो। खेत्तं कालं च विनाय, तहप्पाण निझुंजए ।
-दशवैकालिक 8/35