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नैतिक उत्कर्ष / 257
व-विवेकी - प्रत्येक कार्य को विवेकपूर्ण ढंग से करने वाला । क - क्रियावान - शुभ कार्यों में सतत उत्साहपूर्वक प्रवृति करने वाला । श्रावक शब्द का यह अन्तिम अक्षर - निर्वचन नीतिशास्त्र के लिए अत्यधिक उपयोगी है; क्योंकि सत्य पर दृढ़ विश्वास हुए बिना शुभाशुभादि का निर्णय तथा विवेकपूर्ण आचरण नहीं हो सकता और विवेक के अभाव में वह अपनी स्वीकृत मर्यादाओं- व्रतों का पालन सम्यक् प्रकार से, सही ढंग से नहीं
कर सकता ।
अतः नैतिक आचार के लिए उसमें सत्य, श्रद्धा (विश्वास), विवेक और क्रियाशीलता तीनों ही आवश्यक हैं।
प्रस्तुत प्रसंग में व्रतों का संक्षिप्त परिचय उपयोगी होगा, क्योंकि व्रतों की स्वीकृति के उपरान्त ही सद्गृहस्थ श्रावक पद का अधिकारी बनता है अर्थात् श्रावक पद के लिए व्रत अनिवार्य है ।
व्रत का स्वरूप
'व्रत' मानव द्वारा स्वयं स्वीकृत मर्यादा है। यह किसी अन्य द्वारा जबरदस्ती नहीं थोपे जाते अपितु नैतिक उत्कर्ष की ओर अपने दृढ़ कदम बढ़ाता हुआ मानव स्वेच्छा से इन्हें स्वीकारता है ।
यह ध्यातव्य है कि श्रावक एक पद है, जिसको ग्रहण किया जाता है 1 जिस प्रकार डाक्टर के घर में जन्म लेने से ही कोई डाक्टर नहीं बन जाता, अपितु उसे डाक्टरी की शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है और उस में उत्तीर्ण होकर डाक्टरी की डिग्री लेनी पड़ती है तभी वह डाक्टर बनता है ।
इसी प्रकार श्रावक भी जब अणुव्रतों - श्रावकव्रतों को ग्रहण करके उनकी परिपालना करता है तभी वह व्रती श्रावक के पद से विभूषित होता है और नैतिक उत्कर्ष की ओर क्रियाशील होकर शुभत्व का आचरण करता
है
।
व्रती श्रावक अथवा नैतिक शुभ आचरण करने वाले व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि उसका हृदय दर्पण के समान स्वच्छ हो - अद्दागसमाणा और उसकी वृत्ति प्रवृत्ति माता-पिता के समान वत्सलतापूर्ण हो-अम्मापिउसमाणा ।
वह गुणी व त्यागीजनों आदि का सत्कार और सम्मान करे ही, साथ ही दीन - अनाथ, समाज के अभावग्रस्त, रोगी, अकाल- बाढ़ पीड़ित लोगों को भी यथाशक्ति सहायता करे, उन्हें अनुकंपापूर्वक दान दे, सहयोग करे ।