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________________ जैन दृष्टि सम्मत - व्यावहारिक नीति के सोपान / 253 (2) रूपवान -इसका अभिप्राय नीतिशास्त्रीय संदर्भ में शारीरिक स्वस्थता है। क्योंकि जिनका रूप सुन्दर नहीं है, वे भी नैतिक हो सकते हैं और रूपवान व्यक्ति भी अनीतिपूर्ण आचरण कर सकते हैं। (3) सौम्य स्वभाव - स्वभाव की सौमयता का अभिप्राय है, क्रोध, लोभ आदि आवेग संवेग नियन्त्रित और नियमित हों । ( 4 ) लोकप्रियता - समाज तथा परिवार के सभी व्यक्ति उसके सौम्य स्वभाव के कारण उससे स्नेह करते हैं । (5) अक्रूरता- क्रूरता का अभाव । अन्य लोगों को अपनी शकत से दबाकर अनुचित लाभ न उठाना । (6) पापभीरु - पापों से डरने वाला । 7) अशठता - छल-कपट का व्यवहार न करना ! (8) सुदाक्षिण्य - धर्मकार्य में दूसरों की सहायता करना, दाक्षिण्यता का अभिप्राय कुशलता-चतुराई भी है। इसका अभिप्राय यह है कि कुशलतापूर्वक व्यवहार करे । ( 9 ) लज्जालु - अकृत्य करने में लज्जा अनुभव करना । ( 10 ) दयालु - प्राणीमात्र पर दया की भावना रखना । ( 11 ) मध्यस्थता - माध्यस्थ्य भावना भी है, इसका अभिप्राय यह है कि राग-द्वेष कम करके प्राणीमात्र की कल्याण भावना रखना । ( 12 ) सौम्यदृष्टि - आँखों में सौम्यता का सागर लहराता है । (13) गुणरागी - सद्गुणों को ग्रहण करना । ( 14 ) सत्कथी - सत्य कहने वाला तथा सत्य का पक्ष ग्रहण करने वाला । (15) सुदीर्घदर्शी - विचारवान, विवेकी, आगे-पीछे का परिणाम सोचकर कार्य करने वाला । ( 16 ) विशेषज्ञ - अच्छाई-बुराई और आत्मा के हित-अहित को विशेष रूप से गहराई से जानने वाला । ( 17 ) वृद्धानुगामी - वृद्ध का अभिप्राय यहां उन व्यक्तियों से है जो ज्ञान और आचरण में अधिक परिपक्व हों; जिनाक आचरण असंदिग्ध और नीतिपूर्ण हो, उनका अनुगमन करना । ( 18 ) विनीत - विनम्र और विनयपूर्वक आचरण करने वाला । (19) कृतज्ञ - अपने प्रति किये गये उपकार को विस्मृत न होने वाला । ( 20 ) परहितकारी - परोपकार करने वाला ।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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