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________________ जैन दृष्टि सम्मत - व्यावहारिक नीति के सोपान / 251 लोभ तो पाप का बाप ही है। लोभी मानव पर एक प्रकार का नशा छाया रहता है। उसके मन-मस्तिष्क पर लोभ का लालच का चश्मा चढ़ा होता है। वह भयंकर से भयंकर दृष्कृत्य कर डालता है। धन के लिए वह किसी के भी प्राण ले सकता है, आग भी लगा सकता है और भी अनेक प्रकार का पाप कर्म - घोर अनैतिक कर्म कर सकता है 1 मात्सर्य कहते है, ईर्ष्या को । किसी अन्य की उन्नति, धन-सम्पत्ति, उपार्जन की अधिक क्षमता, समाज अथवा राष्ट्र में प्रतिष्ठा को देख / सुनकर व्यक्ति के हृदय में जो उस व्यक्ति के प्रति जलन उत्पन्न होती है, वह ईर्ष्या है । ईर्ष्या एक प्रकार का विष है जो ईर्ष्यालु के सम्पूर्ण जीवन को ही विषाक्त कर देता है। ईर्ष्या के कारण गुणवान व्यक्ति भी तिरस्कृत होने लगता है । इन्द्रियों को वश में करना - इन्द्रियाँ पाँच हैं - (1) स्पर्शन, (2) रसना, (3) प्राण, (4) चक्षु और (5) श्रोत्र । इन पाँचों इन्द्रियों को वैदिक दर्शनों में ज्ञानेन्द्रियां कहा गया है। पश्चिमी दर्शनकारों ने इनको Senses कहा है । इन्द्रियों को वश में करने का अभिप्राय है- इन इन्द्रियों को अपने - अपने विषयों की ओर जाने से - उनमें प्रवृत्त होने से रोकना । स्पर्शन इन्द्रिय का विषय काम सेवन है, रसना इन्द्रिय स्वादिष्ट रसों का सुख लेना चाहती है, घ्राण इन्द्रिय सुगन्धित पदार्थों की मधुर गंध की ओर लालायित होती है, चक्षु इन्द्रिय सुन्दर रूप को देखकर मुग्ध बन जाती है और श्रात्र इन्द्रिय मीठे-मीठे प्रियकारी सुखप्रद शब्द सुनने को ललचाती है । इन इन्द्रियों को इनके इच्छित प्रिय विषयों की ओर न जाने देना, इन नियंत्रण, नियमन और संयमन करना, इन्द्रिय वशीकरण है । यद्यपि यह सत्य है कि मार्गानुसारी पूर्णरुप से इन्द्रियों को वश में नहीं रख सकताः किन्तु वह इन्हें अनियंत्रित भी नहीं छोड़ सकता क्योंकि अनियन्त्रित इन्द्रियां अपने विषयों की ओर दुष्ट अश्व के समान दौड़ती हैं और मानव को पतन के गर्त में गिरा देती है, उसके धार्मिक जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है । अतः व्यावहारिक नीति का पालन करने वाला सद्गृहस्थ इन्हें (अपनी समस्त इन्द्रियों को) अंकुश में रखकर नैतिक जीवन व्यतीत करता है । यह मार्गानुसारी के 35 गुण जैन साधक की व्यवहारिक नीति के निर्देशक सूत्र हैं। इन निर्देशों को हृदयंगम करता हुआ वह अपने जीवन-व्यवहार को संचालित करता है और नीति के उत्कर्ष की ओर गति - प्रगति करता है ।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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