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250 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
क्रोध वस्तुतः एक आवेग है, ज्वाला है, इसका निवास व्यक्ति के अन्तरंग में है, मन मस्तिष्क में है, इसीलिए इसे आन्तरिक शत्रु कहा है, बाह्यरुप में तो इसका प्रगटीकरण होता है।
क्रोध एक ऐसी आग है जो स्वयं व्यक्ति को जलाती है, उसके रक्त में उबाल लाती है, शारीरिक-मानसिक-आत्मिक सभी प्रकार की शक्तियों का हास करती हैं। क्रोधी व्यक्ति शौर्य अग्नि पर गिरे नमक की तरह चर-चर की आवाज के साथ विनष्ट हो जाता है। उसके सत्य, शील आदि गुणों को क्रोध हनन कर लेता है।
क्रोध के दुष्परिणाम बताते हुए अंग्रेज विचारक इंगरसोल ने कहा है कि यह विवेक बुद्धि को नष्ट कर देता है। यूनानी विचारक पाइथागोरस ने तो क्रोध का प्रारम्भ मुर्खता से और अन्त पश्चात्ताप में बताया है।
वैज्ञानिक भी क्रोध को शारीरिक एवं मानसिक दोनों दृष्टियों से अत्यन्त हानिप्रद मानते हैं।
कोई भी विवेकी व्यक्ति ऐसे हानिप्रद क्रोध से बचना चाहेगा। हानि किसे पसन्द है? इसीलिए मार्गानुसारी क्रोध को दूर हटाता है, क्रोध के निमित्तों से बचता है, ऐसी स्थितियों को उत्पन्न नहीं होने देता, सतत् जागरूक और सावधान रहता है।
मोह का नीतिशास्त्रीय प्रसंगोपात्त अर्थ यहां मूढ़ता समझना चाहिए। मूढ़ता का अभिप्राय है-विवेक शक्ति का नाश। क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य अथवा क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इस प्रकार के निर्णय की क्षमता का अभाव अथवा ह्रास।
गीताकार के शब्दों में क्रोधाद् भवति सम्मोह क्रोध से मूढ़ता की स्थिति उत्पन्न होती है। और यह निश्चित है कि मूढ़ मानव पतन की राह पकड़ लेता है। कर्तव्याकर्तव्य का विवेक न कर पाने के कारण वह उस पथ का अनुगामी बन जाता है, जो अनैतिकता अथवा दुर्नीति की ओर गतिशील होता है। मूढता की स्थिति में व्यक्ति ऐसे कार्य भी कर बैठता, जिनका परिणाम बहुत भयंकर होता है। 1. अति कोपनस्य शौर्य वन्हिस्थित लवणमिव शतधा विशीर्यते।
-सोमदेवसूरि : नीतिवाक्यामृत 2. कुद्धो...सच्चं विणयं हणेज्ज।
-प्रश्नव्याकरण, 2/2 3. Anger blows out the lamp of mind.
-R.G. Ingersoll 4. Anger begins in folly and ends in repentance. -Pythagoras.