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जैन दृष्टि सम्मत-व्यावहारिक नीति के सोपान / 249
आत्मा के आन्तरिक छह शत्रु हैं-(1) काम (2) क्रोध (3) लोभ (4) मोह (5) मद और (6) मात्सर्य। इन आन्तरिक शत्रुओं की यह विशेषता है कि इन्हीं के कारण बाह्य शत्रु बनते हैं।
काम के दो अर्थ हैं-(1) इच्छा और (2) कामना अथवा वासना। धन-सम्पत्ति, ऐश्वर्य आदि संग्रह करने की अभिलाभा इच्छा है और वासना काम-सेवन की प्रवृत्ति को कहा जाता है।
ये दोनों ही सीमा से अधिक बढ़ जाने पर विग्रह का कारण बन जाते हैं। अधिक संग्रह की इच्छा शोषण को जन्म देती है, जिसके कारण जन-असंतोष फैलता है, भ्रष्टाचार पनपता है, अनैतिकता को खुलकर खेलने का अवसर मिलता है। और वासना-सीमातीत वासना के कितने कटु परिणाम होते हैं, यह सर्वविदित है, धन-हानि, शक्ति-हानि, प्रतिष्ठा-हानि तो होती ही है, जीवन भी संकट में पड़ जाता है।
इसीलिए कहा गया है-काम शूल की तरह चुभने वाला, विष के समान प्राण हरण करने वाला और आशीविष के समान क्षणमात्र में भस्म करने वाला है। यह विषबुझे बाण और तीखे शूलों के समान पीड़ा-दायी है।
काम अथवा इच्छा या कामना का कोई अन्त नहीं है यह आकाश के समान अनन्त है। इसे समुद्र के समान अन्तरहित भी बताया गया है।
यद्यपि ऐसे दुस्तीर्ण और अनन्त काम (इच्छा समूह-कामना समूह) को वश में करना, इसे त्यागना अत्यन्त कठिन है, किन्तु विवेकी मार्गानुसारी अपने विवेक से इस दुष्कर कार्य को सरल बनाने का दृढ़तम प्रयास करता है और इस असीम को ससीम बनाकर इस पर विजय प्राप्त करने के लिए सचेष्ट रहता है, कामावेग को वश में रखता है। ____गीता में कामात् क्रोधः कहकर क्रोध की उत्पत्ति काम से बताई गई है। इसका अभिप्राय यह है कि मन में किसी प्रकार की कामना उठी, कोई इच्छा उत्पन्न हुई और यदि वह पूरी नहीं हुई तो क्रोध आ गया।
1. सल्लंकामा, विसंकामा
कामा आसीविसोवमा। 2. सत्तिसूलूपमा कामा। 3. इच्छा हु आगाससमा अणंतिया 4. समद इवहि कामः नैव कामस्यान्तोऽस्ति।
-उत्तराध्ययन सूत्र, 9/53
-थेरीगाथा -उत्तराध्ययन सूत्र -तैत्तिरीय ब्राह्मण, 2/2/5