________________
248 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
नीतिकारों ने मानवों की चार श्रेणियाँ' बताई है(1) जो दूसरों के सुख के लिए, अपने सुखों का भी त्याग कर देते हैं। (2) जो अपने सुख का त्याग नहीं करते हुए दूसरों का उपकार करते हैं।
(3) जो अपने स्वार्थ (सुख) में मग्न रहते हैं, अपने स्वार्थ को ही सिद्ध करते हैं, चाहे इससे किसी दूसरे को पीड़ा ही क्यों न हो।
(4) ऐसे भी मानव होते हैं जो बिना अपने स्वार्थ के, व्यर्थ ही दूसरों को कष्ट देते हैं, उन्हें पीड़ित करते हैं। ___ इनमें से प्रथम कोटि के पुरुष उत्तम कोटि के नैतिक हैं और द्वितीय कोटि के पुरुषों की गणना सामान्य नैतिक पुरुषों में होती है। अधिकांशतः नीतिवान पुरुष इसी सामान्य कोटि के होते हैं।
तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के पुरुष तो घोर अनैतिक-नरराक्षस होते हैं। वे मानव कहलाने योग्य भी नहीं हैं।
जबकि नैतिक पुरुष तो ऐसे होते हैं कि वे उपकार करके भूल जाते हैं और यदि किसी ने उन पर उपकार किया है तो उस उपकार को वे सदैव स्मरण रखते हैं और प्रत्युपकार के लिए तत्पर रहते हैं। (34-35) विजय की ओर
- नैतिक जीवन की ओर अग्रसर मार्गानुसारी व्यक्ति, उपरोक्त तेतीस गुणों को धारण करके अपनी मनोभूमि को इतनी स्वच्छ और निर्मल बना लेता है, अपना आचरण इतना विवेकसंपृक्त बना लेता है, मनोबल को इतना दृढ़ कर लेता है कि वह विजय की ओर अपने दृढ़ और मुस्तैद कदम बढ़ाने में सफल हो जाता है।
विजय किस की? इस जिज्ञासा के समाधान में आचार्य ने कहा है-आन्तरिक छह रिपुओं का त्याग करता हुआ इन्द्रियों पर विजय करे।'
1. एके सत्पुरुषा परार्थघटका स्वार्थान् परित्यज्य ये,
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन थे। तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये। ये निघ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ।।
-उद्धृत-साधना के सूत्र, मधुकर मुनिजी, पृष्ठ 312 2. अन्तरंगारिषड्वर्ग-परिहार-परायण। वशीकृतेन्द्रियग्रामो...।
योगशास्त्र, 1/56