SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दृष्टि सम्मत-व्यावहारिक नीति के सोपान / 247 भावना भरती है। एक आचार्य ने तो यहां तक कहा हैदया नहीं महातीरे सर्वे धर्माः द्र मायिता। -सभी धर्मों के वृक्ष दया महानदी के तीर पर टिके हुए हैं। नैतिक जीवन में भी दया का बहुत महत्व हैं। यह नैतिकता का मूल आधार है, इसके अभाव में नैतिकता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वह व्यक्ति कैसे नैतिक हो सकता है, जो दूसरों के कष्टों, अभावों, पीड़ाओं को देखकर भी अनदेखा करे, उपेक्षा कर दे। सौम्यता का भी दया के साथ अन्योन्य सम्बन्ध है। सौम्य व्यक्ति के हृदय में ही दया प्रतिष्ठित होती है और सौम्यता ही दया की भावना को दृढ़ता प्रदान करती है। ____ जो व्यक्ति क्रूर है, क्रोधी है, अभिमानी है, अथवा छल कपट में निपुण है, उससे दया की आशा भी नहीं की जा सकती। इसके अतिरिक्त वह व्यक्ति नैतिक भी नहीं हो सकता। क्रोध और अभिमान तो अनैतिक प्रयत्य हैं। यह तो मानव को अनैतिक तथा क्रूर आचरण की ओर ही प्रेरित करते हैं। नैतिक व्यक्ति का हृदय तो सौम्य होता ही है, उसके हृदय की सौम्य भावना उसके चेहरे पर, क्रिया-कलापों में, बोलने-चालने में स्पष्ट झलकती है। उसको देखने मात्र से अन्य व्यक्तियों के हृदय में सांत्वना का संचार होता है, उन्हें ऐसा लगता है कि इस व्यक्ति के सम्पर्क से हमारे कष्ट कम हो जायेंगे। सौम्य व्यक्ति की एक और अवश्यम्भावी विशेषता होती है-परोपकार कर्मठता। परोपकार की भावना उसके हृदय में हिलोरें लेती है। उसका हृदय इतना कोमल और परःदुखकातर होता है कि वह बिना परोपकार किये रह ही नहीं सकता। उपकार के दो भेद बताये हैं-(1) स्वोपकार और (2) परोपकार। स्वोपकार का अभिप्राय है-अपनी आत्मा का उपकार करना, अर्थात् हृदय में कलुषित, गर्हित भाव न लाना, ईर्ष्या, डाह आदि से बचना। निरन्तर आत्मा को ऊर्ध्वगामी विचारों से ओत-प्रोत रखना, नैतिक प्रगति की ओर अग्रसर होना। परोपकार है-दूसरों के कष्टों को मिटाने का प्रयत्न करना। यह व्यावहारिक रूप है, लोक-प्रत्यक्ष है, नैतिक प्रगति इससे भी होती है, लोगों की दृष्टि में व्यक्ति नैतिक अथवा नीतिवान माना जाता है।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy