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________________ जैन दृष्टि सम्मत-व्यावहारिक नीति के सोपान / 245 प्रिय बनाओ, कोई भी मुझसे ईर्ष्या और डाह न करे, मैं संसार में मधु से भी अधिक मीठा बनकर रहूं। लेकिन विवेकी और नीति का ज्ञाता व्यक्ति जानता है कि इस प्रकार की प्रार्थनाओं से कोई भी स्थायी लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सकता, उसके लिए व्यावहारिक ठोस उपाय किये जाने आवश्यक हैं। वे उपाय हैं-सदाचार और सेवा। सदाचार का अभिप्राय है-अपना स्वयं का आचरण शुद्ध हो, चरित्र उन्नत हो, व्यवहार में किसी प्रकार का कपट न हो, सभी के साथ मधुरवाणी का प्रयोग किया जाय। और सेवा-अभावग्रस्त, रुग्ण और जो लोग किसी भी प्रकार से जरूरतमन्द हैं, उनका यथाशक्ति तन-मन-धन से सहयोग देना, उनके कष्टों, अभावों और पीड़ाओं को कम करने का प्रयास करना, रुग्ण व्यक्ति के औषधोपचार के प्रबन्ध के साथ-साथ तन-मन से उसकी परिचर्या करके उसे स्वस्थ होने में सहयोगी बनना। जिसका कोई नहीं, उसका सहायक बनकर उसकी विपत्ति दूर करना असंगिहिय परिजणस्य संगहियता भवई यही लोकसेवा का मूल मन्त्र है। इसी प्रकार के अन्य समाजोपयोगी कार्यों को करके मार्गानुसारी स्थायी लोकप्रियता प्राप्त करता है। (30-31-32-33) सलज्जता, सदयता, सौम्यता और परोपकार लज्जा नारी का आभूषण है तो पुरुष का भी। यह साधक के लिए विशुद्धि का स्थान भी है। भगवान महावीर ने कहा है जो साधक आत्मा को विशुद्ध करना चाहता है, उसे चार विशुद्धि स्थानों का पालन करना आवश्यक है, वे हैं-लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य। -अथर्ववेद, 19 1621 -अथर्ववेद, 12 11 124 -अथर्ववेद, 11341 1. (क) प्रियं मां कृणु देवेषु...प्रियं सर्वस्य पश्यतः। (ख) मा नो द्विक्षत कश्चन। (ग) मधोरस्मि मधुतरो। 2. स्थानांग सूत्र। 3. सलज्जः सदयः सौम्यः परोपकृतिकर्मठः। 4. लज्जा दया संजम बंभचेरं। कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं। -योगशास्त्र, 1155 -दशवैकालिक, 9 113
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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