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________________ जैन दृष्टि सम्मत-व्यावहारिक नीति के सोपान / 243 इस प्रकार वह अपने सभी उत्तरदायित्वों का समुचित रूप से पालन करता हुआ नैतिक जीवन बिताता है। (26) दीर्घदर्शिता दीर्घदर्शिता का अभिप्राय है, भविष्य का विचार करके काम करने वाला। आचारांग सूत्र में साधक के लिए स्थान-स्थान पर ‘परिणामदंसी, आयंकदंसी और अणोमदंसी' यह विशेषण आये हैं। परिणामदंसी का अभिप्राय है-प्रत्येक वस्तु की परिणति-परिणाम और उसके फल का विचार करना, आयंकदमी का निहित अर्थ है-मेरे आचरण से कहीं मुझे कष्ट या आतंक तो नहीं होगा और अणोमदंसी अपनी विचारधारा को सदा ऊर्ध्वमुखी बनाये रखने की प्रेरणा है। यह तीनों ही गुण दीर्घदर्शिताके लिए आवश्यक है। मार्गानुसारी अपनी कोई भी वृत्ति-प्रवृत्ति बिना भविष्य का विचार किये नहीं करता, क्योंकि बिना विचारे जो करे सो पाछे पछिताय। काम बिगारै आपुनो, जग में होत हसाय ॥ यह दोहा व्यावहारिक नीति के लिए अटल सत्य है। 'घर हानि जग हास' का आचरण सदा ही दुःख और क्लेश उत्पन्न करता है। नीति का प्रारंभिक बिन्दु है-विचारधारा को सदा उन्नत रखना। जिसके विचार सदा ऊर्ध्वमुखी होते हैं, उसका आचरण भी तदनुरूप बनता है, वह सदा नीति के मार्ग पर आगे बढ़ता है। इसीलिए आचार्य ने मार्गानुसारी के लिए दीर्घदर्शी होना एक आवश्यकगुण बताया है। लेकिन यहाँ दीर्घसूची और दीर्घदर्शी का अन्तर समझ लेना आवश्यक है। दीर्घसूत्रता आलस्य का पर्याय है। दीर्घसूत्री व्यक्ति महीनों वर्षों तक सोचता रहता है, ऊहापोह करता रहता है, दृढ़ कदम नहीं उठा पाता और इस कारण जीवन के हर क्षेत्र में विफल हो जाता है। 1. उद्धृत-साधना के सूत्र, युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी, पृष्ठ 285 2. नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थ, न क्लीवा न च मानिनः । न च लोकापवादभीताः न च शश्वत प्रतीक्षिणः । -महाभारत
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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